Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * नवतत्व * ००००००००००००००००००००००००००००००००000..०.. द्रव्य का सम्बन्ध होना जिसके द्वारा रुक जाय, उसे संवर कहते हैं । (७) आत्मा से लगे हुए कुछ कर्म, जिसके द्वारा आत्मा से अलग हो जाय, उसे निर्जरा कहते हैं । (८) दूध और पानी की तरह प्रोत्मा और पुद्गलद्रव्य का आपस में मिलना, बन्ध कहलाता है। (8) सम्पूर्ण कर्मों का पात्मा से अलग होना, मोक्ष कहलाता है। ज्ञान और चैतन्य का मतलब एक है तथा जड़ और अजीव का मतलब एक है । इन नवतत्त्वों में से जीव और अजीव जानने योग्य हैं; पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष ग्रहण करने योग्य हैं: पाप अाम्रब और बन्ध त्याग करने योग्य हैं । आत्मा जिन पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण कर अपने प्रदेशों से मिला लेता है वे पुद्गलद्रव्य, कर्म कहलाते हैं। जीव और अजीब ये दोही तत्व मुख्य हैं। क्यों कि पुण्य पाप अाश्रव और बन्ध ये कर्मरूप होने से अजीव में और संबर निर्जरा और मोक्ष ये जीव के स्वभाव होने से इनका जीव में समावेश हो जाता है। For Private And Personal

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