Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 50
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३८) *नवतस्व* __(५८-६०) स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुन्सकवेदका मतलब पहले लिखा जा चुका है । (६१) जिह कर्मसे तियश्चगति मिले, उसे 'तिर्यश्चगति पापकर्म कहते हैं। (६२) जिस कर्मसे जीवको जबरदस्ती तिर्यश्चगतिमें जाना पड़े, उसे 'तिर्यश्चानुपूर्वी पापकर्म कहते हैं । इग-बि-ति-चउजाईनो, कुखगइ उवघाय हुंति पावस्स । अपसत्थं वरणचउ, अपढमसंघयण-संठाणा ॥ १६ ॥ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिकर्म, अशभविहायोगति नामकर्म, उपघातकर्म, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, अप्रथम संहनन अर्थात् ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलिका और सेवात संहनन, अप्रथम संस्थान अर्थात् न्यग्रोध, सादि, कुब्ज, वामन और हुँड संस्थान । ये बयासो भेद पापतत्वके हैं ।। १६॥ For Private And Personal

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