Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 57
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भाखवतस्व. (४५) 100000000000०-०००००००००००००००००००.... (५) दूसरों के प्राणोंका नाश करने से 'प्राणाति. पातिकी क्रिया लगती है। (६) खेती श्रादि करनेसे 'प्रारम्भिकी क्रिया लगती है। (७) धान्य वगैरह के संग्रह तथा उस पर ममता करनेसे 'पारिवाहिको' क्रिया लगती है। (८) दूसरोंको ठगनेसे 'मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है। मिच्छादसणवत्ती, ___अप्पचक्खाणी य दिट्ठी पुट्ठी श्र। पाडचित्र सामंतो, वणीश्र नेसत्थि साहत्थि ॥२३॥ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी, दृष्टिकी, स्पृष्टिकी, प्रातीत्यकी, सामंतोपनिपातिकी, नैशास्त्रको स्वास्तिको ॥ २३ ॥ ___(8) जिनेन्द्रवचनसे विपरीत मिथ्यादर्शनसे मिथ्या: दर्शनप्रायकी क्रिया लगती है। (१०) संयमके विघातक कषायोंके उदयसे प्रत्याख्यान न करना उसमे 'अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है। (११) रागादिकलुषित चित्तसे पदार्थोंको देखने से 'टिको क्रिया लगती है। For Private And Personal

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