Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (५०)....... *नवतस्त्र * (५) कफ, मूत्र, मल आदिको जीवरहित जगह में छोड़ना, 'पारिष्ठापनिका' समिति कहते हैं। तीन गुप्ति । (६) मनोगुप्तिके तीन भेद हैं; असत्कल्पनावियोगिनी, समतामाविनी और आत्मारामता। आर्त तथा रौद्र ध्यान सम्बन्धी कल्पनाओंका त्याग, असत्कल्पनावियोगिनी' सब जीवों में समान भाव, 'समताभाविनी' । केवलज्ञान होने के बाद सम्पूर्ण योगों के निरोध करने के समय 'प्रोत्मारामता' । (७) वचनगुप्तिके दो भेद हैं; मौनावलम्बिनी और वानियमिनी । किसी अभिप्राय को समझाने के लिये भ्रकुटि आदि से संकेत न करके मौन धारण करना, 'मौनावलम्बिनोबांचने या पूछने के समय मुहके सामने 'मुखवत्रिका धारण करना, 'वानियमिनी' । (E) कायगुप्ति के दो भेद हैं; चेष्टानिवृत्ति और यथासूत्रचेष्टानियमिनी: योगनिरोधावस्था में केवली का सर्वथा शरीर चेष्टा का परिहार तथा २ कायोत्सर्ग में अनेक प्रकार के उपसर्ग होते हुए भी शरीर को स्थिर रखना, चेष्टानिवृत्ति' । साधु लोग, उठने बैठने सोने आदिमें जैन For Private And Personal

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