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*संवरतंव *
(११) 00000000000000000000000000000000000000000 सिद्धांत के मुताबिक शरीर के व्यापार को नियमित रखते है, उसे 'यथासूत्र चेष्टानियमिनी' कहते हैं । पांच समिति और तीन गुप्तिको 'अष्टप्रवचनमाता' कहते हैं।
खुहा पीवासा सि उरहं,
दंसा चेलाऽरइथियो। चरित्रा निसिहिया सिज्जा,
अक्कोस वह जायणा ॥२७॥ "इस गाथामें तथा अगली गाथामें बाईस परिसहोंका वर्णन है।"
क्षुधा, पिपासा, शीत; उष्ण, दंश, चेल, अरति, स्त्री, चर्या, नैपेधिकी, शय्या, आक्रोश, वध, याचना।
धर्मको स्वाके लिये कर्मोको निर्जरा के लिये प्राप्त हुये दुःखों को सब तरह से. सहन करना; 'परिसही कहलाता है ॥२७॥ र
(१) क्षुधापरिसह--सुधाके समान कोई चीज अधिक पीड़ा देनेवाली नहीं है । भूख से पेटकी भाँते जलने लगतो हैं । कैसी भी तेज भूख लगे तो भी साधुलोग, निर्दोष आहार जब तक नहीं मिलता है तब तक भूख की पीड़ाको सहन करते हैं । तुधापरिसह सब परिसहों से 'कदा है इसलिये प्रथम कहा गया।
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