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लोकस्वभावभावना, बोधिदुर्लभभावना और धर्मके कथक-उपदेशकर्ता सर्वज्ञ वीतरागका पाना मुश्किल है, इस तरहको धर्मभावना, इन पारह भावनाओंको प्रयत्नसे विचारे ॥ ३१॥
(१०) कमर पर दोनों हाथोंको रखकर और पैरोंको फैलाकर खड़े हुये पुरुषकी प्राकृतिके समान यह लोक है, जिसमें धर्मास्तिकायादि छह द्रव्य भरे पड़े हैं। ऐसा विचार करना, 'लोकभावना' कहाती है।
(११) संसारमें अनन्तकालसे जीव भ्रमण कर रहा है। अनेकवार चक्रवर्तीके जैसी ऋद्धि पाई: मनुष्यजन्म, उत्तम कुल, आर्य देश पाया तथापि सम्यज्ञान (यथार्थज्ञान ) पाना मुश्किल है, इस भावनाको 'बाधिदुर्लभभावना' कहते हैं।
(१२ ) संसारसमुद्र पार उतारनेमें नौकाके समान ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप धर्मका उपदेश करने वाले अरिहंत आदिको पाना तथा उसके कहे हुए धर्मको पाना मुश्किल है; ऐसे विचारको 'धर्मभावना' कहते हैं।
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सामाइअत्थ पढ़म.
छेप्रोवट्ठावणं भवे बीअं।
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