Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 85
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * निर्जरातत्व * (७३) 0000000000000000000000000000000000000000 "आठ कर्मों के नाम और उनकी उत्तर प्रकृतियां।" इह नाण-दसणावरण वेय-मोहाऽऽउ-नाम-गोत्राणि । विग्धं च पण-नव-दुअ-, हवीम-चउ-तिसय-दु-पणविहं ॥३६॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म हैं। ज्ञानावरणीय की उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैं; दर्शनावरणीय की नव; वेदनीय को दो; मोहनीयकी अट्ठाईस; श्रायुकी चार; नामकर्मको एकसौ तीन; गोत्रकी दो; और अन्तरायकी पांच उत्तर प्रकृतियां हैं ॥३३॥ "आठ कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ।" नाणे अ दंसणावरणे, वेत्रणीए चेव अंतराए । तीसं कोडाकोडी. अयराणं ठिइअ उक्कोसा॥४०॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय For Private And Personal

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