Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 100
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (ex) www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * नयसव * 'पुद्गलपरावर्तन' पहले हो चुक और अनन्तगुणे श्रागे होंगे ॥ ५४ ॥ जिए - अजिए - तित्थ ऽतित्था, गिहि- अन्न - सलिंग थी- नर-नपुंसा | पत्तेय - सयंबुद्धा, बुद्धबोहिक णिक्काय ॥ ५५ ॥ "इस गाथामें सिद्धों के पंदरह भेद कहे गये हैं ।" (१) तीर्थङ्करसिद्ध, (२) अतीर्थङ्करसिद्ध, (३) तीर्थसिद्ध, (४) अतीर्थसिद्ध, (५) गृहस्थलिङ्गसिद्ध, (६) अन्यलिङ्गसिद्ध, (७) स्वलिंगसिद्ध, (८) स्त्रीसिद्ध, (६) पुरुष - सिद्ध, (१०) नपुन्सकसिद्ध, (११) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (१२) स्वयंबुद्धसिद्ध, (१३) बुद्धबोधितसिद्ध, (१४) एकसिद्ध और (१५) अनेकसिद्ध ये पंदरह सिद्ध के भेद हैं ॥ ५५ ॥ (१) तीर्थङ्कर होकर जिन्होंने मुक्ति पाई, वे जिनतीर्थङ्कर सिद्ध । ऋषभ, महावीर आदि । ( २ ) सामान्य केवली, अजिन - तीर्थङ्करसिद्ध कहलाते हैं, जैसे पुण्डरीक आदि । (३) चतुर्विध संघकी स्थापना करने के बाद जिन्होंने मुक्ति पाई वे 'तीर्थसिद्ध,' जैसे गौतम आदि गणधर । For Private And Personal

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