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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१
आराधना
वीर जैन
श्री महावी
कोबा.
अमृतं
अमृत
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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500000oodaso000000
000000000000000
DOO.00
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उनवतत्त्व
(हिन्दी-भाषानुवाइ-सहित) 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000
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30
वीर संवत् २४७१
विक्रम सं० २००२
नव-तत्त्व ।
( हिन्दी-भाषानुवाद सहित )
प्रकाशक -
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श्रीश्रात्मानन्द - जैन- पुस्तक- प्रचारक-मंडल,
रोशन मुहल्ला - श्रागरा ।
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आत्म संवत् ५०
ईस्वी सन १६४५
चतुर्थवार १००० ] सर्वाधिकार रक्षित [ मूल्य १० आने
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65
अनुक्रमणिका ।
विषय
जीवतस्त्र
जीवतस्त्र
पुण्यतरुव
पायतक
यास्तव
संत्रस्तत्र
निर्जरातस्त्र
बन्धतन्त्र
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६.
मोक्षतत्र
...
600
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..
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10.
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पृष्ठ
१३
५१
२६
४२
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૭૪
જે
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प्रकाशक का निवेदन। नवतत्व की चतुर्थावृत्ति प्रकाशित करते हुए हमें हर्ष होता है । मण्डल हिन्दी जैन साहित्य को जो अपूर्व सेवा कर रही है वह आप लोगों से छिपा नहीं है । हिन्दी राष्ट्र भाषा होनेवालो है अतः जैन साहित्य का हिन्दी भाषा में प्रचार होना अतीव आवश्यक है।
प्रस्तुत पुस्तक की सहायता के लिए रु. १००) श्रीमती अंगूरी बीवी ने प्रदान किये हैं अतः मण्डल
आपका अत्यन्त आभारी है और हम हमारे और दानवीर भाइयों को भी देश-काल गति का ध्यान रखते हुए हिन्दी साहित्य के प्रचार में मण्डल को सहायता देने के लिए आकृष्ट करते हैं। ___ काग़ज़ का महर्घता के कारण और छपाई का रेट भी बहुत बड़जाने से हमको मजबूर होकर इस आवृत्ति में कीमत बढ़ानी पड़ी है।
यह मण्डल पं० अमृतलाल ताराचंद दोसी का भी आभारी है कि जिन्होंने इस आवृत्ति में बहुत सा संशोधन करके पुस्तक को ज्यादा उपयोगी बनाया है।
मानद मन्त्री आगरा रोशन-महल्ला दयालचन्द जोहरी, जवाहरलाल नाहटा ता० २७-५-१९४५ श्रीवात्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडल
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श्रीमान् बाबू नोनकरनओ मनसारामजी जौहरो बनारस बालों के कुटुम्ब का परिचय ।
जिन बाबू मनसारामजी का फोटो इस पुस्तक में आप देख रहे हैं उनके पूर्वज जयपुर राज्य के निवासी थे । प्रायः दो सौ वर्ष हुये कि खा० तुलारामजी ओसवाल चन्डालिया अपने पुत्र विधारीलालजी को लेकर जयपुर से बनारस आये थे, प्राप वहां पर बजाजो का काम करते थे ।
जिस समय गिरधारीलालजी जयपुर में रहते थे। उनके १८ सन्ताने हुई, जिनमें से केवल एक बालक जिसका नाम नोनकरन था और एक लड़की यहीं दो सन्तानें जीवित रहीं। शेष छोटी अवस्था में ही काल कर गई थीं ।
जब बालकों में केवल नोनकरनजी ही जीवित बचे उत समय किसी महात्मा ने गिरधारीलालजी से कहा कि इस बालक को यदि तुम पूर्व देश की ओर ले जाओगे तो यह दीर्घायु होगा और जीवित रहेगा। यही कारण आपके पूर्वओं का जयपुर से बनारस आने का था ।
तीस वर्ष तक लाला गिरधारीलालजी बनारस में रहे । बाद को उन्होंने जयपुर जाने का विचार किया । उसी समय बनारस के लाला गोकुलचन्दजी ने अपनी पुत्री के साथ नोकरनी का विवाद कर दिया । उसके बाद लाला गिरधारी लालजी ने जयपुर जाना स्थगित कर दिया और निश्चित रूप से बनारस में ही रहने लगे ।
लाला नोनकरनजी बहुत ही बुद्धिमान प्रतिभाशाली नैष्ठिक धर्मानुरागी थे। आपकी रुचि जवाहरात के व्यापार की ओर थी। इस कारण आपने जवाहरात का काम मीखा और थोड़े
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ही समय में अपना प्रतिभा सम्पन्नता के कारण बहुत ही कुशल ओहरी बन गये। और आप जवाहरात का पार करने लगे। मोहरियों में आप प्रथम श्रेणी के जौहरी समने जाने लगे। आपकी जवाहरात की परख की प्रशंसा और योग्यता यहां तक थी कि आपने नेत्रों से पट्टी बाँध देने पर भी शाप हाथ से
टोल कर ही बतला देते थे कि यह अमुक नगीना है। आपके जिसे यह कम प्रशंसा की बात नहीं थी। भापके करीब १०० शागिर्द थे ६७ वर्ष की अवस्था में आप स्वर्गवासी हुए।
आपके चार पुत्र थे। सब से बड़े गम्भीर चम्ममी, दूसरे मनसारामजी, सीसरे मोहनलालजी, और चौथे केसरीचन्दजी । आपके एक कन्या भी हुई थी। वह विवाह के बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। बाहों भाइयों में से सब से प्रथल गाभारतम् जी. स्वर्गवासी हुए ___ मनसासरामजी से विवाह नहीं किया। मापका स्वभाव बहुत ही अच्छा था। आप बड़े मिलनसार उदार व्यक्ति थे । अवाहपा के व्यापार में आप भी अपने पिता वा० नोनकरनजी के समान बहुत कुशल जौहरी थे । जवाहरात के ८४ संग (पत्थर) मशहूर हैं उनमें से आपने ८० संग एकत्र किये थे इसने संगो का एकत्र होना बहुत ही कठिन काम है, श्वापको लगा रहता था कि सभी संग हमारे यहां होवे इन संगो के एकत्र करने में बाबू दयालचन्दजी चौरडीया जोहरी श्रागरा निवासी ने भी जिन्होंने उपरोक्त बाबू साहिब से जवाहरात का काम सीखा, बहुत कुछ प्रयत्न किया था आप १७ वर्ष कलकले भी रहे थे, शेष जीवन बनारस में व्यतीत कर महावदी १५ संवत १६७३ में स्वर्गवासी हुये।
बा० मोहनलालजी का विवाह श्रागरा निवासी लाल अजमलजी लोढ़ा की पुत्री श्रीमती अंगूरी बीपी से हुआ था उस रमामय पापको अवस्था १२ वर्ष की थी । आप भी बहूत कुशल
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बा० मंसारामजी चण्डालिया जौहरी,बनारस ।
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व्यापारी ये और समाज सेवा मी कूट कर भरी थी। पापसी ४७ वर्ष की आयु भोग कर वैशाख सुदि १ संवत् १६५७ में है जे की बीमारी से मृत्यु को प्राप्त हुये । बा० केसरीचन्दजी के दो विवाह हु" थे। पहिला ला0 चुन्नीलालजी लोढ़ा की पुत्री से मागरा में और दूसरा बा० हजारीमलजी कलकत्ते वालों की पुत्री से हुआ था। इनकी दोनों पत्नियां दो दो तीन २ वर्ष जीवित रहीं। आएका देहान्त भादों सुदी १५ संवत् १६८ में हुआ।
कुटुम्ब में कोई बालक न होने के कारण बा० मनसारामजी ने करीब ३६ वर्ष हुए लब बा मोहनलालजी की धर्म पत्नी श्रीमती अंगूरी बोली के जोधपुर से बा० लाभचन्दजी को बुला कर गोद बिठा दिया। लाभचन्दजी भी बहुत धामिक परोपकार की भावना रखने वाले व्यक्ति हैं, उनका विवाह बा० शिखर चन्द जी नाहटा की पुत्री श्रीमती इन्द्रा बाबी से हुा । श्राप इप समय चार लड़क और १ लड़की है । (१) मंगलचन्द, (२) रविच र (३) रमेशचन्द, (४) ज्ञानचन्द, (४) निर्मलकुमारी।
प्रस्तुत पुस्तक की सहायतार्थ रु० १००) श्रीमती अंगूरी पीवी ने प्रदान किये हैं। आप धप्रियता और दानप्रियता के लिये मशहूर हैं। आपकी अवस्था इस समय ८० वर्ष की है यह महल पापका अति आभारी है।
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॥ॐ॥ नवतत्त्व
जीवाजीवा पुण्णं,
पावासवसंवरो य निजरणा। बंधो मुक्खो य तहा,
नव तत्ता हुंति नायब्वा ॥१॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नवतत्त्व जानने योग्य हैं ।। १ ॥
(१) चेतना लक्षणो जीवः-जिसमें चेतना-ज्ञान हो, उसे जीव कहते हैं । (२) जिसमें चेतना-ज्ञान नहीं है, उसे अजीव कहते हैं । (३) जिस कर्म से जीव सुख पाता है, उस कर्म का नाम पुण्य है। (४) जिस कर्म से जीव दुःख पाता है, उस कर्म का नाम पाप है। (५) प्रात्मा से सम्बन्ध ( मेल) करने के लिये जिसके द्वारा पुद्गलद्रव्य पाते हैं, उसे प्रास्रव कहते हैं। (६) आत्मा से पुद्गल
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* नवतत्व *
००००००००००००००००००००००००००००००००000..०..
द्रव्य का सम्बन्ध होना जिसके द्वारा रुक जाय, उसे संवर कहते हैं । (७) आत्मा से लगे हुए कुछ कर्म, जिसके द्वारा आत्मा से अलग हो जाय, उसे निर्जरा कहते हैं । (८) दूध और पानी की तरह प्रोत्मा और पुद्गलद्रव्य का आपस में मिलना, बन्ध कहलाता है। (8) सम्पूर्ण कर्मों का पात्मा से अलग होना, मोक्ष कहलाता है।
ज्ञान और चैतन्य का मतलब एक है तथा जड़ और अजीव का मतलब एक है । इन नवतत्त्वों में से जीव और अजीव जानने योग्य हैं; पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष ग्रहण करने योग्य हैं: पाप अाम्रब और बन्ध त्याग करने योग्य हैं । आत्मा जिन पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण कर अपने प्रदेशों से मिला लेता है वे पुद्गलद्रव्य, कर्म कहलाते हैं। जीव और अजीब ये दोही तत्व मुख्य हैं। क्यों कि पुण्य पाप अाश्रव और बन्ध ये कर्मरूप होने से अजीव में और संबर निर्जरा और मोक्ष ये जीव के स्वभाव होने से इनका जीव में समावेश हो जाता है।
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DODO
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* जीवतस्व ऋ
9600०००
"अब जीव आदि तत्व के भेद कहते हैं ।"
चउदस चउदस बाया
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सत्तावन्नं बारस,
0000
लीसा वासी हुति बायाला ।
च नव या कमेणेसिं ॥ २ ॥
जीव के चौदह, अजीव के चौदह, पुराय के बयालीस, बाप के बयासी, आसव के बयालीस, सेवर के सत्तावन, निर्जरा के बारह, बन्ध के चार और मोक्ष के नव भेद हैं || २ ||
उपर बताई हुई नवतस्त्रों के सब भेदों की संख्या दोसौ छियत्तर (२७६) हैं । उनमें अठयासी भेद अरुपी है और एक सौ अयासी भेद रुपी है। संवर, निर्जरा श्रौर मोक्ष ये तीन तत्र आत्मा के सहज स्वभाव होने से रुपी है और जीव, पुण्य, पाप, ध्याश्रव और बंध ये पांच तत्त्व कर्म रूप होने से रुपी है । यद्यपि जीव रुपी है फिर भी कर्म - युक्त संसारी जीव की अपेक्षा से यहां रुपी में गिना गया है, तथा जीव तत्र में १४ भेद में से पुद्गल के चार भेद रुपी हैं, और धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य के दस भेद रुपी हैं ।
नव के रुपी रुपी भेदों की और हेय-ज्ञेय उपादेया की यन्त्र द्वारा समझ. :
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(४)
00
अंक
१
15
नाम
पुण्य
पाप
आश्रव
संवर
निर्जरा
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रुपिभेद | रुपिभेद
जीव
१४
अजीव ४
४२
८२
४२
बंध
मोक्ष
ॐ नवतस्त्र *
00000000
EC
0
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०
१०
O
o
५७
१२
0
00000000
यज्ञेयादि
ज्ञेय
ज्ञेय
उपादेय
य
हेय
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उपादेय
उपादेय
हेय
उपादेय
" इस गाथा में छः प्रकार से जीव का विवेचन है ।"
एगविह दुविह तिविहा, चव्विा पंच छव्विहा जीवा ।
चेयण तस इयरेहिं,
वेय गइ करण काहिं ॥ ३ ॥
चेतन रूप से जीव एक तरह का है: त्रस और स्थावर रूप से दो तरह का स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुन्सकवेद रूप से तीन करह का देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति रूप से चार तरह का एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रूप से पांच तरह का पृथ्वीकाय,
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* जीवतत्व*
०००00.00000000000000000000000000000000
जलकाय, तेजःकाय, वायुकाय वनस्पतिकाय और त्रसका. यरूप से छः तरह का ॥३॥
सूर्य बादलों से चाहे जितना घिर जाय तो भी उसका प्रकाश कुछ न कुछ जरूर बना रहता है इसी तरह कर्मों के गाढ़ प्रावरण से ढके हुए जोव के ज्ञान का अनन्तवां भाग खुला रहता है; मतलब यह है कि पूर्ण कर्मबद्ध दशो में भो जीव में कुछ न कुछ ज्ञान जरूर बना रहता है; यद ऐसा न हो, तो जीव और जड़ में कोई फर्क ही न रहेगा।
सर्दी गरमो आदि से बचने के लिये जो जीव चल फिर सकें वे 'स' कहलाते हैं, जैसे:-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,
आदि । चल फिर न सकें वे 'स्थावर' कहलाते हैं, जैसे:एकेन्द्रिय जीव, वृक्ष, लता, पृथ्वीकोय, जलकाय आदि।
जिस कम के उदय से पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा होतो है उस कर्म को 'स्त्रीवेद' कहते है। जिस कर्म के उदय से स्त्रो के साथ सम्भोग करने की इच्छा होतो है उस कर्म को 'पुरुषवेद' कहते हैं। जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ सम्भोग करने की इच्छा होती है उस कर्म को 'नपुन्सकवेद' कहते हैं। .
देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक, ये चार गतियाँ हैं। अनादिकाल से इन गतियों में जीव घूम रहा है, और जब तक मुक्ति नहीं मिलती तब तक बराबर घूमता रहेगा।
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*नवतत्व *
aar.mon
__ एकेन्द्रिय जीव के हैं, जिन्हें सिर्फ शरीर हो, जैस:पृथ्वीकाय, जल काय, तेजःकाय, वायुकाय और वनस्पति काय के जीव ।
द्वीन्द्रिय जीव वे हैं, जिन्हें सिर्फ शरीर और जीम हो जैसे:-केंचुआ, जोंक शंख आदि के जीव ।
त्रीन्द्रिय जीव वे हैं, जिन्हें सिर्फ शरीर,जीभ और नाक. हो, जैसे:-चोंटी, खटमल, जू',इन्द्रगोप (बरसाती लाल रंग के कीड़े) आदि जीव ।
चतुरिन्द्रि य जीव वे हैं, जिन्हें सिर्फ शरीर, जीभ,नाक और अांख हो जैसे:-बिच्छू, भौंरा, मक्खी, मच्छर श्रादि । पंचेन्द्रिय जीव वे हैं, जिन्हें शरीर, जीभ, नाक, आँख और कान हो, जैसे:-देव, मनुष्य, पशु, पक्षी श्रादि । ___ काय का मतलब है शरीर, जिनका शरीर सिर्फ पृथ्वी का हो, वे पृथ्वीकाय; जिनका शरीर सिर्फ जल का हो वे जलकाय (अपकाय), जिनका शरीर सिर्फ तेजका हो,वे तेजः काय ( अग्नि काय); जिनका शरीर सिर्फ वायु का हो, वे वायुकाय; शाक, भाजी, फल, फूल आदि का जिनका शरीर हो, वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं।
पृथ्वोकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय,वनस्पतिकाय और त्रस काय,इनको 'षडजोवनिकाय (छकाय)कहते हैं।
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* जीवतस्व* .0000000000000000000000.-००००००००००.00000
" काय जीव के चौदह भेद कहते हैं।" एगिदिय सुहुमियरा,
सन्नियर पणिंदिया य सबितिचउ । अपजत्ता पज्जता,
___ कमेण चउदस जियठाणा ॥४॥ एकेन्द्रिय जीव के दो भेद हैं, सूक्ष्म और बादर । पंचेन्द्रिय के दो भेद हैं, संज्ञो और असंज्ञो (दोनों के मिलाकर चार भेद हुए)। द्वीन्द्रिय का एक भेद, त्रीन्द्रिय का एक भेद और चतुरिन्द्रिय का एक भेद ( ये तीन और पहिले के चार मिलाकर सात हुए ) ये सातों पर्याप्त और अपर्यास रूप से दो प्रकार के हैं । इस तरह जीव के चौदह भेद हुए॥४॥ __ सूक्ष्म जीव वे हैं जिनको हम आंखसे नहीं देख सकते, न उन्हें अग्नि जला सकती है, न कोई चोज उनको उपघात पहुँचा सकती है, न वे किसी को उपघात पहुँचा सकते हैं, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणियों के उपयोग में नहीं आते, सारे लोक में वे भरे पड़े हैं। ___ बादर जीव वे हैं, जिन्हें हम देख सकते हैं, आग उन्हें जला सकती है, मनुष्य आदि प्राणियों के उपयोग में वे भाते हैं, उनकी गति में रुकावट होती है, वे सारे लोक में
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(८)
* नवतत्व * 00000000000000000000००००००००००००००००००००० व्याप्त नहीं हैं किन्तु उनके रहने को जगह नियत है।
संज्ञी पचेन्द्रिय वे हैं जिनको पाँच इन्द्रियों और मन हो, जैसे:-देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय को पांचों इन्द्रियां होती हैं पर मन नहीं होता, जैसे:-मछली, मेढ़क तथा खून, वीर्य, वात, पित्त, कफ आदि के सम्मूर्छिम मनुष्य जीव ।
जिन जीवों की जितनी पर्याप्तियां कही गई हैं उन पर्याप्तियों को यदि वे पूरी कर चुके हो, तो 'पर्याप्त' कहलाते हैं। जिन जीवों ने अपनी पर्याप्ति पूरी नहीं की, वे 'अपर्याप्त' कहलाते हैं।
"अब जीव का लक्षण बतलाते हैं।" नाणं च दंसणं चेव,
चारतं च तवो तहा। वीरियं उपभोगो अ,
एनं जीअस्स लक्खणं ॥५॥ ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण हैं अर्थात् ये, जीव को छोड़ कर किसी दूसरे पदार्थ में नहीं रहते ॥५॥
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* जोवतत्व *
00.00000.00amesnewa0000000000000000ones
(१) पांच प्रकार का ज्ञान और तीन प्रकारको अज्ञान, ये दोनों ज्ञान शब्द से लिए जाते हैं। ज्ञान के पांच भेद ये हैं:-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । अज्ञान के तोन भेद ये हैं,-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान । इनको क्रम से कुमति, कुश्रत और कुअवधि भी कहते हैं। जिस जोव में ज्ञान हो, उसे सम्यग्दृष्टि और जिसमें अज्ञान हो उसे मिथ्याष्टि कहते हैं:
(२) दर्शन के चार भेद हैं:-चक्षुर्दर्शन, अचक्षदर्शन अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
(३) चरित्र के दो भेद हैं:-भाव चारित्र और द्रव्यचारित्र । भावचारित्र के पांच भेद हैं:--सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात। क्रिया के निरोध को द्रव्यचारित्र कहते हैं।
(४) तप के दो भेद हैं:-द्रव्यतप और भावतप द्रव्य तप के बारह भेद हैं, वे आपकहे गये हैं । इच्छा के निरोध को भाव तप कहते हैं।
(५) सामर्थ्य, बल अथवा पराक्रम को वीर्य कहते हैं।
(६) उपयोग के दो भेद हैं: साकार और निराकार। साकार उपयोग को ज्ञान कहते हैं, और निराकार उपयोग को दर्शन । ज्ञान के आठ भेद और दर्शन के चार भेद, यह बारह प्रकार का उपयोग है।
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* नवतस्व* 900000000000000000000000000000000000000
"छह पर्यामियों के नाम, और वे किन जीवों को कितनी होती हैं,
___ सो कहते हैं।" श्राहार-मरीर-इंदिय-,
पजती प्राणपाण भाममणे । चरपंच पंच पित्र,
इग-विगलाऽसन्नि-सन्नीणं ॥६॥ श्राहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति और मनःपर्याप्ति, ये छह पर्याप्तियाँ हैं । एकेन्द्रिय जीव को चार; विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञो पञ्चे. न्द्रिय को पाँच और संज्ञोपंचेन्द्रिय को छह पर्याप्तियाँ होती है ॥ ६॥
शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं; जीवसम्बद्ध पुद्गल में एक ऐसी शक्ति है जो आहार को ग्रहण कर उसका रस बनाती है, उस शक्ति का नाम है 'आहारपर्याप्ति' ।
रसरूप परिणाम का खून, मांस, मेद ( चर्बी ), अस्थि ( हड्डि) मजा ( हड्डि के अन्दर का कोमल पदार्थ ) और वीर्य बनाकर शरीर रचना करने वाली शक्ति को शरीर पर्याप्ति कहते हैं।
सात धातुओं में रक्त मांस आदि में परिणत रस से इन्द्रियों के बनाने वाली शक्ति को 'इन्द्रियपर्याप्ति' कहते हैं।
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* जीवतत्व* 000000000000000000000000000०००००००००००००००
श्वासोच्छ्वास बनने योग्य पुद्गलद्रव्य को ग्रहण कर उसे श्वासोच्छवास रूप में परिणत करने वाली शक्ति को श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति' कहते हैं।
मन बनने योग्य पुद्गलद्रव्य को ग्रहण कर मनोरूप में परिणत करने वाली शक्ति को 'मनःपर्याप्ति' कहते हैं।
भाषायोग्य पुद्गलद्रव्य को ग्रहण कर भाषारूप में परिणत करने वाली शक्ति को 'भाषा पर्याप्ति' कहते हैं । __ पदार्थ के स्वरूप का बदलना परिणाम कहलाता है, जैसे-~-दूध का परिणाम दही ।
इस तरह आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन, ये छः पर्याप्तियाँ हैं । इनमें से पहली चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जोव को होती हैं। मनःपर्याप्ति को छोड़ बाकी की पाँच पर्यातियाँ विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को होती हैं।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवको 'विकलेन्द्रिय' कहते हैं । छः पर्याप्तियाँ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की. होती हैं। पहली तीन पर्याप्तियाँ पूरी किये बिना कोई जोर नहीं मर सकता।
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*नपतत्व
"द्रव्यप्राणों के दस भेद, और वे किन जीवों को कितने है.
सो कहते हैं।" पणिदिन--त्तिवलूमा
साऊ दम पाण चउ छ सग अट्ट। इग-दु-ति चरिदीणं,
असन्नि-सन्नीण नव दम य ॥७॥ पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोच्छवास और आयु, ये दस प्राण कहलाते हैं। एफेन्द्रिय को चार प्राण: द्वीन्द्रिय को छह; त्रीन्द्रिय को सात; चतुरिन्द्रिय को बाट; असंज्ञी पंचेन्द्रिय को न और संज्ञी पंचेन्द्रिय को दस प्राण होते हैं ।। ७ ॥
(१) एकेन्द्रिय के चार प्राण ये हैं;-त्वगिन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, कायबल और आयु ।
( २ ) एकेन्द्रियजीव की अपेक्षा, द्वीन्द्रिय जीव के रसनेन्द्रिय और वचनवल-ये दो प्राण अधिक हैं ।
( ३ ) द्वीन्द्रिय की अपेक्षा, श्रीन्द्रिय जीव को घाणेन्द्रियप्राण अधिक है।
( ४ ) श्रीन्द्रिय की अपेक्षा चतुरिन्द्रिय जीव को चक्षििन्द्रय यह एक या अधिक है।
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* जीवतच्च *
(१३)
*1000090
( ५ ) चतुरिन्द्रिय को अपेक्षा असंज्ञो पञ्चन्द्रिय को श्रोत्रेन्द्रिय-यह एक प्राण अधिक है
I
1
( ६ ) असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा, संज्ञी पंचेन्द्रिय को मनोबल - यह एक प्राण अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद हैं- मनुष्य और तिर्यञ्च इनको सम्मूच्छिम कहते हैं समूच्छिम मनुष्य की वचन बल नहीं होता इस लिये उसको आठ प्राण समझना चाहिये । वह यदि श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति को पूर्ण किये बिना ही मर जाय तो
सात प्राण समझना ।
नाचे लिखे हुये श्लोक में भो दस प्राणों का वर्णन हैपंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ताः, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा || १ || पाँच इन्द्रियां, तीन बल मनोबल, वचनबल और कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयु, ये दस प्राण, भगवान ने कहे हैं; जीव को इन प्राणों से जुदा करना, हिंसा कहलाती है।
जोव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र श्रादि गुणों को "भावप्राण" कहते हैं ।
|| जीव तच समाप्त ॥
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*नवतस्व*
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0
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अजीव तत्त्व । "अब अजीवतत्त्व का वर्णन करते हुए प्रथम अजीव तत्व के
चौदह भेद कहते हैं।" धम्मा धम्माऽगासा,
तिय तिय भेया तहेव श्रद्धा य । खंधा देस पएसा,
परमाणु अजीव चउदसहा ॥८॥ स्कन्ध, देश और प्रदेश रूप से धर्मास्तिकाय, अधआस्तिकाय और श्राकोशास्तिकाय के तीन तीन भेद हैं, इस लिये तीनों के नव भेद हुए; काल का एक भेद और पुद्गल के चार भेद हैं:-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु। सब मिल कर अजीव के चौदह भेद हुए ॥८॥
स्कन्धः-चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोक में पूर्ण जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अआकोशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय हैं, ये प्रत्येक स्कन्ध' कहलाते हैं। मिले हुए अनन्तपुद्गलपरमाणुओं के छोटे समूह को 'स्कन्ध' कहते हैं।
देशः---स्कन्ध से कुछ कम, अथवा बुद्धिकल्पित स्कन्धभाग को 'देश' कहते हैं।
प्रदेशः-स्कन्ध से अथवा देश से लगा हुआ अति
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* अजीवतत्व *
सूक्ष्म भाग ( जिसका फिर विभाग न हो सके) 'प्रदेश' कहलाता है।
परमाणुः-स्कन्ध अथवा देश से पृथक, प्रदेश के समान अतिसूक्ष्म स्वतन्त्र भाग 'परमाणु' कहलाता है। _धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के परमाणु नहीं होते।
अस्तिकाय-अस्ति का अर्थ है प्रदेश और कायका अर्थ है समूह, प्रदेशों के समूह को 'अस्तिकाय' कहते हैं।
कालद्रव्यका वर्तमान समय रूप एक ही प्रदेश है, प्रदेशों का समूह न होने से आकाशास्तिकाय की तरह 'कालास्तिकाय' नहीं कह सकते।
"इस गाथा में तथा इस से आगे की गाथा में अजीवतत्त्व का
स्वरूप विशेष रूप से कहते हैं।" धम्माऽधम्मा पुग्गल,
नइ कालो पंच हुंति अजीवा । चलणसहावो धम्मो;
थिरसंठाणो अहम्मो अ॥६॥ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल, ये पांच अजीव द्रव्य हैं।
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(१६)
* नवतत्त्व *
9.90.
धर्मास्तिकाय, चलन स्वभाव वाला है अर्थात् जैसे मछली के चलने फिरने में जल सहायक है उसी तरह जोव और पुद्गल के सञ्चार में हिलने डुलने में-धर्मास्तिकाय महायक है। अधर्मास्तिकाय स्थिर स्वभाव वाला है अर्थात जैसे वृक्षादि की छाया पक्षियों को विश्रान्ति लेने में-ठहरने में-कारण है उपो तरह जोब और पुद्गन को स्थिर रखने में अधर्मास्तिकाय कारण है ॥ ६ ॥
अवगाहो अागासं,
पुग्गल जीवाण पुग्गला चउहा। खंधा देस पएसा,
यव्या॥१०॥ अवकाश देना आकाशास्तिकाय का स्वभाव है । जैसे दूध, शकर को अरकाश देता है उसी तरह अाकाशास्तिकाय, जीव और पुद्गलों को अवकाश देता है। पुद्गल के चार भेद ये हैं; 'स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ॥१०॥ __ आकाश के दो भेद हैं, लोकाकाश और अलोकाकाश ।
जितने आकाश देश में जोव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय और काल व्याप्त है, वह लोककाश कहलाता है, और उस से जुदा अलोकाकाश ।
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* अजीवतत्त्व manomerana.or-..--.-0000000000000000
प, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द ये सिर्फ पुद्गला. स्तिकाय में रहते हैं, धर्मास्तिकाय आदि में नहीं।
"पुद्गल का लक्षण सबंधयार-उज्जोत्र,
पभा-छाया-ऽऽतवे इय। वन्न गंध रसा फासा,
पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥११॥ शब्द, अन्धकार, रत्नादिका उद्योत, चन्द्रादिकी प्रभो, छाया और सूर्यादिका प्रातप, ये पुद्गल हैं, अथवा जिस में वर्ण गन्ध, रस और स्पर्श हो, उसे पुद्गल समझना चाहिये ॥११॥
पूरण गलन, जिसका स्वभाव हो, उसे पुद्गल कहते हैं अथात् जो इकट होकर मिल जाते हैं और फिर जुदे जुदे हो जाते हैं, वे पुद्गल कहलाते हैं।
-
-
"अब दो गाथाओं से कालद्रव्य का स्वरूप कहते हैं।" एगा कोडी सतसट्टि,
लक्खा सतहत्तरी सहस्सा य ।
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* नवतत्व
०००००००००००००.
--00000०००००००००
.
.
दो य सया सोलहिया,
श्रावलिया इग मुहुत्तम्मि ॥१२॥ समयावली मुहुत्ता,
दोहा पक्खा य मास वरिसा य । भणियो पलिया सागर,
उस्सप्पिणी सप्पिणी कालो ॥१३॥ एक क्रोड़, सड़सठ लाख, सतहत्तर हजार, दो सौ सोलह (१६७७७२१६) प्रालिकाओं का एक 'मुहर्त' होता है ॥१२॥
असंख्य समयों की एक 'पावलिका होती है।
जिसका विभाग न हो सके ऐसे अतिसूक्ष्म कालको 'समय' कहते हैं । तीस मुहूत्र्तों का अहोरात्ररूप एक 'दिन' होता है । पन्द्रह दिनों का एक 'पक्ष'। दो पक्षों का एक 'मास' । बारह महीनों का एक 'वर्ष'। असंख्य वर्षों का एक ‘पन्योपम'। दस क्रोडाकोड़ी पल्योपम का एक 'सागरोपम' । दस क्रोडाकोड़ो सागरोपम की एक 'उत्सपिणी' । दूसरे दस क्रोडाकोड़ी सागरोपम की एक 'अवरूपिणी ॥ १३ ॥
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मिलकर एक 'कालचक्र'
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* अजीवतत्त्व *
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होता है। ऐसे अनन्त कालचक बीतने पर एक 'पुद्गलपरावर्त' होता है । कोड़ाक्रोड़ी-कोड़को क्रोड़ से गुणने पर जो संख्या होती है उसे 'क्रोड़ाक्रोड़ी' कहते हैं ।
I
पिच्चं कारण कत्ता,
(१६)
" छह द्रव्यों का विशेष स्वरूप कहते हैं । "
परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एग खित्त किरिया य ।
सव्वगय इयर वेसे ॥१४॥
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जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाशास्तिकाय और काल - ये छह द्रव्य हैं । इनमें से जोब और पुद्गन ये दो परिणामी हैं; जीव चेतन द्रव्य है; पुद्गल मूर्त्त हैं; जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य प्रदेश सहित हैं; धर्म, अधर्म और आकाश - ये तोन, एक एक हैं; आकाश क्षेत्र है; जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नित्य हैं, धर्म अधम, आकाश काल और पुद्गल, कारण हैं; जीव कर्ता
आकाश सर्वगत- अर्थात् लोक- अलोक व्यापी है, और छहों द्रव्य प्रवेश रहित हैं - अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का स्वरूप नहीं धारण करता ।। १४ ।।
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(२०)
* नवतस्व विशेष-परिणाम दो प्रकार के होते हैं, स्वभाव परिणाम और विभात्र परिणाम । अन्यद्रव्य के निमित्त से होने पाला विरूप परिणाम, विभाव परिणाम कहलाता है, जैसेजीवके निमित्त से पुद्गल, कर्म के स्वरूप में बदल जाते हैं, और पुद्गल के निमित्त से जोवका ज्ञान, अज्ञान के रूप में बदल जाता है । विभाव परिणाम को अपेक्षा से जोक
और पुद्गल परिणामी हैं, अन्य द्रव्य नहीं क्योंकि उनमें स्वभाव परिणाम ही होता है, विभावपरिणाम नहीं होता।
द्रव्यप्राण और भावप्राणों को जीवद्रव्य ही धारण करतो हे अतएव अन्य पांच द्रव्य, निर्जीव हैं।
इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाने की योग्यता जिस द्रव्य में हो, उसे मूर्त समभाना चाहिये । अथवा, जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो उसे मूत कहते हैं । पुद्गल द्रव्य को छोड़, अन्य पाँच द्रव्य अमूर्त हैं। ___काल द्रव्य को छोड़, अन्य पाँच द्रव्य, प्रदेशवाले हैं। जोव, धर्मास्तिकाय और अधम स्तिकाय के-सेक के असंख्य प्रदेश है । सामान्य रूप से आकाश के अनन्त प्रदेश हैं परन्तु लोकाकाश के असंख्य प्रदेश हैं । पुद्गलद्रव्य संख्यात प्रदेशोंवाला, असंख्यात प्रदेशोंवाला और अनन्त प्रदेशोंवाला होता है।
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c
* अजीवतत्स
obe x News आकाश द्रव्य, अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है। इसलिये वही एक क्षेत्र कहलाता है । और अन्य द्रव्य क्षेत्री कहलाते हैं।
एक जगह से दूसरी जगह जाना यह क्रिया है । जोक और पुद्गल को छोड़ अन्य द्रव्यों में क्रिया नहीं है इस लिये जीव और पुद्गल सक्रिय, और अन्य द्रव्य निष्क्रिय कहलाते हैं।
धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन चार द्रव्यों में विभावपरिणाम नहीं होता इसलिये ये नित्य और जीव तथा पुद्गल में विभावपरिणाम होता है इसलिये ये दोनों अनित्य हैं । नयवाद को लेकर जीवको अनित्य कहा है, अन्यथा, जैन-सिद्धान्त सर द्रव्यों को नित्यानित्य कहता है।
जीवके शरीर-इन्द्रिय आदि के बनने में कारण, पुद्गल है; जोधके गमन में कारण, धर्मास्तिकाय है; जीवके स्थिर होने में कारण, अधर्मास्तिकाय है; जोवकी वर्तना में कारण, काल है । इस लिये ये पाँचों द्रव्य, कारण हैं; और जोक द्रव्य अकारण है, क्योंकि जीव से उन पाँचों द्रव्यों का कोई उपकार नहीं होता।
॥अजीव तत्व समाप्त ॥
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*नवतत्त्व
पुण्यतत्त्व । सा उच्चगोत्र मणुदुग,
सुरदुग पंचेंदिजाइ पणदेहा। आइतितणूणुवंगा,
प्राइमसंघयणसंठाणा ॥ १५ ॥ "इस गाथा में तथा आगे की दो गाथाओं में पुण्य तत्त्व के
बयालीस भेद कहे हैं।" सातावेदनीय, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, देवगति, देवानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, चैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर प्रथम के तीन शरोरों के अंग, उपांग और अंगोपांग, प्रथम संहनन और प्रथम संस्थान ।। १५ ॥
( १ ) जिस कर्म से जीव सुख का अनुभव करे, उसे 'सातदिनीय' कहते हैं।
(२) जिस कर्म से जीव उच्चकुल में पैदा हो, उसे 'उच्चैर्गोत्र' कहते हैं।
(३) जिस कर्म से जीव को मनुष्यगति मिले उसे 'मनुष्यगति' कहते हैं।
जिस कर्म से मनुष्य की प्रानुपूर्वी मिले उसे 'मनुष्यानुपूर्वी कहते हैं । आनुपूर्वी का मतलब यह है कि
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* पुण्यतत्व *
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(२३)
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जैसे टेढ़े चलते हुए बैल को नथनी डाल कर सीधे चलाने में आता है वैसे ही विग्रहमति से दूसरी गति में जाने वाला जीव जब शरीर छोड़ कर समश्रेणि से जाने लगता है तब श्रानुपूर्वी कर्म उस जीवको जबरदस्ती से, जहां पैदा होना हो, वहाँ पहुँचा देता है। मनुष्य गति कर्म और मनुष्यानुपूर्वीकर्म दोनों को 'मनुष्यद्विक' संज्ञा है ।
+60
( ५ ) जिस कर्म से जोत्र को देवगति मिले, उसे 'देवगति' कहते हैं ।
( ६ ) जिस कर्म से जीव को देवता की श्रानुपूर्वी प्राप्त हो, उसे देवानुपूर्वी कहते हैं ।
(७) जिस कर्म से जीवको पांचों इन्द्रियां मिलें, उसे 'पञ्च ेन्द्रिय जातिकर्म' कहते हैं ।
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( ८ ) जिस कर्म से जीव को श्रदारिक शरीर मिले उमे 'औदारिककर्म' कहते हैं उदार अर्थात् बड़े बड़े अथवा तीर्थंकरादि उत्तम पुरुषों की अपेक्षा उदार -प्रधान पुद्गलों से जो शरीर बनता है उसे 'दारिक' कहते हैं । मनुष्य पशु पक्षी आदि का शरीर श्रदारिक कहलाता है ।
(६) जिस कर्म से वैक्रिय शरीर मिले उसे 'वैक्रियकर्म' कहते हैं। अनेक प्रकार की क्रियाओं से बना हुआ शरोर, 'वैक्रिय' कहलाता है । उसके दो भेद हैं; औपपातिक और
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(२४)
*नवतस्व
लब्धिजन्य । देवता और नरकनिवासी जीवों का शरीर 'औपपातिक' कहलाता है।
लब्धि अर्थात् सामर्थ्य विशेष प्राप्त होने पर तिर्थश्च और मनुष्य भो कभी कभी वैक्रिय शरीर धारण करते हैं, वह 'लब्धिजन्य' है।
(१०) जिस कर्म से अाहारक शरीर की प्राप्ति हो उसे 'आहारक' कर्म कहते हैं दूसरे द्वोप में विद्यमान तीर्थ: कर से अपना सन्देह दूर करने के लिये या उनका ऐश्वर्य देखने के लिये जब चौदह पूर्वधारी मुनिराज चाहते हैं वव निजशक्ति से एक होथ प्रमाण, चर्म चक्ष से अदृश्य, अति सुन्दर शरीर बनाते हैं, उस शरीर को 'योहारक शरीर' कहते हैं।
(११) जिस कर्म से तैजस शरीर की प्राप्ति हो, उसे 'तेजस' कर्म कहते हैं।
किये हुये आहार को पका कर रस, रक्त श्रादि बनाने पाला तथा तपोबल से तेजोलेश्या निकालने वाला शरीर 'तेजस' कहलाता है।
(१२) जीवों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्मों का विकाररूप तथा सब शरीरों का कारणरूप, 'कोमण' शरीर कहलाता है।
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* पुण्यवस्व * (२५) तैजस शरीर और कार्मण शरीरका अनादिकाल से जीव के साथ सम्बन्ध है और मोक्ष पाये विना उन से बियोग नहीं होता।
(१३-१५ ) अंग, उांग और अंगोपांग, जिन फर्मों से मिले उनको 'अंग' कर्म, 'उपांग' कर्म और 'अंगोपांग' कम कहते हैं।
जानु, भुजा, मस्तक, पीठ आदि अंग हैं, अंगुली घगैरह उपांग और अंगुलीके पर्व, रेखा आदि 'अंगोपांग' कहलाते हैं।
औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरको अङ्ग, उपाङ्ग आदि होते हैं लेकिन तैजस और कार्मण शरीर को नहीं।
(१६) प्रथम संहनन-'वज्रऋषभनाराच'-जिस कर्मसे मिले, उसे 'वज्रऋषभनाराच' नामकर्म कहते हैं ।
हड्डियोंकी रचनाको 'संहनन' कहते हैं। दो हाड़ोंका मकट बन्ध हनेपर एक पट्टा (बेठन ) दोनोंपर लपेट दिया जाय फिर तोनोंपर खीला ठोका जाय, इस तरह की मजबूत हड्डियों की रचना को 'वज्रऋषनाराच' कहते हैं।
(१७) प्रथम संस्थान-'समचतुरस्र' जिस कर्मसे मिले, उसे 'समचतुरस्र' संस्थान नामकर्म कहते हैं।
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* नवतत्त्व * c.000000000000000000000000000000000000000
पालथी मारकर बैठने से दोनों जानु (घुटने) और दोनों कन्धों का इसी तरह बायें जानु और दाहिने कन्धे को तथा दक्षिण जानु और वामस्कन्ध का अन्तर समान हो, तो उस संस्थान को 'समचतुरस्त्र' संस्थान कहते हैं। जिनेश्वर अगरान् तथा देवताओं का यही संस्थान है।
वरण चउक्काऽगुरुलहु,
परघा ऊसास प्रायवुजोधे। सुभखगइ निमिण तसदस,
सुर-नर-तिरिग्राउ तित्थयरं ॥१६॥ वर्ण चतुष्क (वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श), अगुरुलघु, पराघात, श्वासोच्छ्वास, पातप, उद्योत, शुभविहायोगति, निर्माण, सदशक, सुरायुष्य, मनुष्यायुध्य, तिर्यश्चायुष्य और तीर्थङ्कर नामकर्म ॥ १६॥
(१८-२१) जिन कर्मों से जीवका शरीर, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभरस और शुभस्पशवाला हो, उन कर्मों को 'वर्णचतुष्क' नामकर्म कहते हैं।
लाल, पीला और सफेद रंग, शुभ वर्ण कहलाता है। सुगन्ध-खुशबूको शुभगन्ध कहते हैं । खट्टा, मीठा और
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*पुण्यतत्व* 00000000000000000000000०.०००००००००००००००००
कसैला रस, शुभ रस कहलाता है । लघु, मृदु (कोमल), उष्ण और स्निग्ध (चिकने) स्पर्शको शुभ स्पर्श कहते हैं।
(२२) जिस कर्म से जीवका शरीर न लोहे जैसा भारी हो, न आँक की कपास जैसा हलका हो किन्तु मध्यम हो उसे 'गुरुलघु नामकम कहते हैं।
(२३) जिस कर्म से जीव, बलवानों से पराजित न हो, उसे 'पराघात' नामकर्म कहते हैं । ___ (२४) जिस कर्मसे जीव श्वासोच्छवास ले सके उसे, 'श्वासोच्छवास' नामकर्म कहते हैं।
(२५) जिस कर्मसे जीवका शरीर, उष्ण न होकर भी उष्ण प्रकाश करे उसे 'पातप' नामकर्म कहते है। सूर्यमण्डल में रहने वाले पृथ्वीकाय जीवों का शरीर ऐसा ही होता है।
(२६) जिस कर्म से जीवका शरीर शीतल प्रकाश करनेवाला हो, उसे 'उद्योत नामकर्म कहते हैं। ऐसे जीक, चन्द्रमण्डल और ज्योतिश्चक्र में होते हैं । वैक्रिय लब्धिसे साधु, पैक्रिय शरीर धारण करते हैं, उस शरीर का प्रकाश शीतल होता है, वह इस उद्योत नामकर्म से समझना चाहिये।
(२७) जिस कर्मसे जीव हाथी, हंस, बैल जैसी चाल चले, उसे 'शुभविहायोगति' नामकर्म कहते हैं।
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(२८)
* नवरात्र *
( २८ ) जिस कर्म से जीवके शरीर के अवयव, नियतस्थान में व्यवस्थित हों उसे 'निर्माण' नामकर्म कहते हैं ।
जैसे कारीगर, मूर्ति में यथायोग्य स्थानों में अवयरों को बनाता है वैसे ही 'निर्माण' नामकर्म भी अवयवों को व्यवस्थित करता है ।
।
(२६-३८) त्रसदशकका विचार आगे की गाथा में कहा जायगा ।
( ३६-४१ ) जिन कर्मों से जीव देव, मनुष्य और तिर्यश्च की योनि में जीता है, उनको क्रम से 'देवायु', 'मनुष्यायु' और 'तिर्यञ्चायु' नामकर्म कहते हैं ।
(४२) जिस कर्म से जीव, चौतीस अतिशयों से युक्त होकर त्रिभुवनका पूजनीय होता है, उसे 'तोर्थङ्कर' नाम कर्म कहते हैं ।
तस बायर पज्जतं, पत्ते सुस्सर ग्राइज जसं,
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थिरं सुभं च सुभगं च ।
तसाइदसगं इमं होइ ॥ १७ ॥
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" इस गाथा में सदशकका वर्णन है"
( १ ) जिस कर्म से जोव को 'नस' शरीर मिजे उठे
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*पुण्यतरत्र *
( २३ )
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'स' नामकर्म कहते हैं। त्रस जीव वे हैं, जो धूप से व्याकुल होने पर छाया में और शीत से दुखो होने पर धूप में जा सकें । द्वीन्द्रियादि जीव त्रस कहलाते हैं।
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( २ ) जिस कर्म से जीवका शरीर या शरोर-समुदाय देखने में श्रासके इतना स्थूल हो, उसे 'बादर' नामकर्म कहते हैं ।
(३) जिसके उदयसे जीव अपनी पर्याप्तियों से युक्त हो, उसे 'पर्याप्त' नामकर्म कहते हैं ।
(४) जिस कर्म से एक शरीर में एक ही जीव स्वामी रहे, उसे 'प्रत्येक' नामकर्म कहते हैं ।
(५) जिस कर्म से जीवके दांत, हड्डी आदि अवयव मजबूत हों, उसे 'स्थिर' नामकर्म कहते हैं।
(६) जिस कर्मसे जीवकी नोमिके ऊपरका माग शुभ हो, उसे 'शुभ' नामकर्म कहते हैं।
(७) जिस कर्म से जीव, सबका प्रियपात्र हो, उसे 'सौभाग्य' नामकर्म कहते हैं।
(८) जिस कर्मसे जीक्का स्वर [ आवाज ] कोयल की तरह मधुर हो, उसे 'सुस्वर' नामकर्म कहते हैं ।
(६) जिस कर्म से जीव का वचन लोगों में आदरणीय हो, उसे 'आदेय' नामकर्म कहते हैं।
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(३०)
* नवतस्त्र *
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(१०) जिस कर्म से लोगों में यश और कार्ति फैले, उसे 'यशः कीर्ति' नामकर्म कहते हैं ||१७||
पापतत्त्व । नाणंतरायदसगं,
नव बीए नीxsसाय मिच्छत ं । थावरदस नरयतिग कसायपणवीस तिरियदुगं ॥ १८ ॥
"इस गाथा में तथा आगे की दो गाथाओं में पापतश्व के बयासी भेद कहे जाते हैं ।"
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ज्ञानावरणीयके पांच भेद और अन्तराय के पाँच भेद मिलाकर दस भेदः -- १ मतिज्ञानावरणीय, २ श्रुतज्ञानावरणीय, ३ अवधिज्ञानावरणीय, ४ मनः पर्यवज्ञानावरणीय, ५ केवलज्ञानावरणीय ६ दानान्तराय, ७ लाभान्तराय, ८ भोगान्तराय, ६ उपभोगान्तराय, १० वीर्यान्तरायः दर्शनावरणीय कर्मके नव भेद - ११ चक्षुदर्शनावरणीय, १२ श्रचतुर्दर्शनावरणीय, १३ अवधिदर्शनावरणीय, १४ केवलदर्शनावरणीय, १५ निद्रा, १६ निद्रानिद्रा, १७ प्रचला, १८ प्रचलाप्रचला, १६
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* पापतत्व *
(३१)
०००००००००००००००००००००००००००००००
सत्यानद्धि, २० नीचैर्गोत्र, २१ असातावेदनीय, २२ मिथ्यात्वमोहनीय; स्थावरदशक- २३ स्थावर, २४ सूक्ष्म, २५ अपर्याप्त, २६ साधारण, २७ अस्थिर २८ अशुभ, २६ दुभग, ३० दुःस्थर, ३१ अनादेय और ३२ अयशःकीर्ति; नरकत्रिक-३३ नरकायु. ३४ नरकगति
और ३५ नरकानुपूर्वी; पच्चीस कषाय-- ३६ अनन्तानुवन्धो क्रोध, ३७ अ० मान, ३८ अ० माया, ३६ अ. लोभ, ४० अप्रत्याख्यान क्रोध, ४१ अप्र० मान, ४२ अप्र० माया, ४३ अप्र० लोभः ४४ प्रत्याख्यान क्रोध, ४५ प्र० मान, ४६ प्र० माया, ४७ प्र. लोभ, ४८ संज्वलनक्रोध, ४६ सं० मान, ५० सं० माया, ५१ सं. लोभ, ५२ हास्य, ५३ रति, ५४ अरति, ५५ शोक, ५६ भय, ५७ जुगुप्सा, ५८ खीवेद, ५६ पुरुषवेद, ६० नपुन्सकवेद, तियेञ्चद्विक;-६१ तिर्यश्चगति और ६२ तिर्यञ्चानुपूर्वी ॥ १३ ॥
(१) मन और पांच इन्द्रियोंके सन्बन्धसे जीवको जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं, उस ज्ञानका
आवरण अर्थात् आच्छादन, 'मतिज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है।
(२) शास्त्रको द्रव्यश्रुत' कहते हैं और उसके सुनने या पड़ने से जो ज्ञान होता है उसे 'भावश्रुत' कहते हैं, उसका
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(३२)
आवरण, 'श्रुतज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है ।
(३) अतीन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्य को जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, उसका आवरण, 'अवधिज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है ।
* नवतरव *
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( ४ ) संज्ञी पंचेन्द्रियके मन की बात जिस ज्ञानसे मालूम होती है, उसे मनः पर्यवज्ञान कहते हैं, उसका आवरण, 'मनः पर्यवज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है ।
( ५ ) सारे संसारका पूरा ज्ञान जिससे होता है उसे केवलज्ञान कहते हैं, उसका श्रावरण, 'केवलज्ञानावरणीय ' पापकर्म कहलाता है |
( ६ ) दान से लाभ होता है, उसे जानता हो, पास में धन हो, सुपत्र भी मिल जावे, लेकिन दान न कर सके, इसका कारण, 'दानन्तिराय' कर्म है ।
(७) दान देनेवाला उदार है, उसके पाप दान की चीजें भी मौजूद हैं, लेनेवाला भो हुशियार हैं, वो भी मोगो हुई खोज न मिले, इसका कारण, 'लाभान्तराय' पापक्रम है ।
(८) भोग्य चीजें मौजूद हैं, भोगने की शक्ति भी है लेकिन नहीं भोग सके, उसका कारण 'भोगान्तराय' पापकर्म है ।
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* पापतत्त्व *
Motor
(३३)
___(8) उपभोग्य चोजें मौजूद हैं, उपभोग करने की शक्ति भी है लेकिन उपभोग नहीं ले सके, उसका कारण 'उपभोगान्तराय' पापकर्म है। __ जो चीज़ एकबार भोगने में श्रावे वह भोग्य; जैसे---- पुष्प, फल, भोजन आदि । जो पदार्थ बारबार भोगने में आ उसे उपभोग्य कहते हैं, जैसे-स्त्री, वस्त्र, आभरण आदि।
(१०) रोगरहित युवावस्था रहते और सामर्थ्य रहते हुए भी अपनी शक्तिका विकास न कर सके, उसका कारण, 'वीर्यान्तरीय' पापकर्म है।
(११) आँख से पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है उसे 'चक्षुर्दर्शन' कहते हैं, उसका आवरण, 'चक्षुर्दर्शनावरणीय पापकर्म कहलाता है।
पदार्थ के सामान्य ज्ञान को दर्शन कहते हैं और विशेष ज्ञान को ज्ञान ।
(१२) कान, नाक, जीभ, त्वचा तथा मनके सम्बन्ध से शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श का जो सामान्य ज्ञान होता है उसे 'अचक्षुर्दर्शन' कहते हैं, उसका आवरण, 'भचक्षुर्दर्शनावरणीय' पापकर्म कहलाता है।
(१३) इन्द्रियों की सहायता के बिना रूपी द्रव्यका जो
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* नवतव*
सामान्य बोध होता है उसे 'अवधिदर्शन' कहते हैं उसका श्रावरण, 'अवधिदर्शनावरणीय पापकर्म कहलाता है।
(१४) संसार के सम्पूर्ण पदार्थो का जो सामान्य अवरोध होता है, उसे 'केवलदर्शन' कहते हैं, उसका भोवरण 'केवलदर्शनावरणीय' पापकर्म कहलाता है।
(१५) जो सोया हुआ आदमी जरासी खटखटाहटसे या अावाजसे जाग जाता है। उसकी नींदको निद्रा' कहते हैं, जिस कर्मसे ऐसी नींद आवे उस कर्मका भो नाम 'निद्रा' है।
(१६) जो श्रादमी, बड़े जोरसे चिल्लाने या हाथ से जोरसे हिलाने पर बड़ी मुश्किलसे जागता है, उसकी नींदको 'निद्रानिद्रा' कहते हैं, जिस कर्भसे ऐसी नींद भावे उस कर्मका भी नाम 'निद्रनिद्रा' है।
(१७) खड़े खड़े या बैठे बैठे जिसको नींद आती है, उसकी नींद को प्रचला कहते हैं, जिस कर्मसे ऐसी नींद आये, उस कर्मका भी नाम 'प्रचलो' है।
(१८) चलते फिरते जिसको नींद आती है, उसकी नींदको 'प्रचलाप्रचला' कहते हैं, जिस कर्मसे ऐसो नींद आवे, उसका भी नाम 'प्रचलाप्रचला' है।
(१६) दिनमें सोचे हुये काम को रातमें नींदकी
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*पापतत्व.. 000000000000000mom.normommu.........none हालत में जो कर डालता है, उसकी नोंद को 'स्त्यानद्धि कहते हैं, जिस कर्मसे ऐसी नोंद आवे, उस कर्मको भी 'स्त्यानद्धि' कहते हैं।
स्त्यान िकी हालतमें वजषमनाराचसंहननवाले जीवको वासुदेव का प्राधा पल होता है।
(२०) जिस कम से नीच कुलमें जन्म हो, उसे 'नीचैर्गोत्र' पापकर्म कहते हैं।
(२१) जिस कर्मसे जीव, दुःखका अनुभव करे, उसे 'असातावेदनीय' पापकर्म कहते हैं।
(२२) जिस कर्मसे मिथ्यात्वकी प्राप्ति हो उसे 'मिथ्वात्वमोहनीय' पापकर्म कहते हैं ।
मिथ्यात्वका लक्षण यह है, 'प्रदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुगै च या। अधौ धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तन्निगद्यते ॥ देवताके गुण जिसमें न हो उसे देव समझना, गुरुके गुण जिसमें न हों से गुरु मानना और अधर्मको धर्म समझना, यह मिथ्यात्व है।
(२३-३२) स्थावरदशकका वर्णन भागेकी गाथा में भावेगा।
(३३) जिस कर्मसे जीव नरकमें जाता है, उसे 'नरकगति' पापकर्म कहते हैं।
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* नवतत्व *
(३४) जिस कर्मसे जीव नरकमें जीता है, उसे 'नरकायु' पापकर्म करते हैं।
(३५) जिस कर्मसे जीवको जबरदस्ती नरकमें जाना पड़े, उसे 'नरकानुपूर्वी पापकर्म कहते हैं। __ (३६-३६) जिस कर्मसे जीवको अनन्तकाल तक संसारमें घूमना पड़ता है, उसे 'अनन्तानुबन्धो पापकर्म कहते हैं। इसके चार भेद हैं; अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अन. माया ओर अन० लोम। जबतक जीव जीता है तबतक प्रायः ये बने रहते हैं और अन्तमें प्रायः नरकगति प्राप्त होता है।
(४५-४३) जिस कमसे जीवको देशविरतिरूप प्रत्याख्यानकी प्राप्ति न हो, उसे 'अप्रत्याख्यान' पापकर्म कहते हैं। इसके भी चार भेद हैं; अप्रत्याख्यान क्रोध, अप्रत्याख्यान मान, अ. माया और अ० लोभ । इनको स्थिति एक वर्षकी है, इनके उदयसे अणुव्रत धारण करने की इच्छा नहीं होती और मरने पर प्रायः तिर्यश्चगति' मिलती है।
(४४-४७) जिसके उदयसे सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान की प्राप्ति न हो, उसे 'प्रत्याख्यान पापकर्म कहते हैं ।
इसके चार भेद हैं:-प्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यान
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* पापतव*
मान, प्र. मायो और प्र० लोभ । इनकी स्थिति चार महीनेको है; ये पापकर्म, सर्वविरतिरूप चारित्रके प्रतिबन्धक हैं और मृत्यु भेने पर प्रायः मनुष्यगति मिलती है।
(४८-५१) जिस कमसे यथाख्यातचारित्रकी प्राप्ति न हो, उसे 'सज्वलन' पापकर्म कहते हैं ।
इसके भी चार भेद हैं; सज्ज्वलन क्रोध, सं. मान, सं० माया और सं० लोभ । इनकी स्थिति पंदरह दिनों की है और मृत्यु होने पर देवगति प्राप्त होती है।
(५२) जिस कर्मसे, विनाकारण या कारणवश हँसो आये, उसे 'हास्यमोहनीय पापकर्म कहते हैं।
(५३) जिस कर्मसे अच्छे अच्छे पदार्थों में अनुराग हो, उसे 'रतिमोहनीय' पापकर्म कहते हैं।
(५४) जिस कर्मसे, बुरी चीजोंसे नफस्त हो, उसे 'प्रतिमोहनीय पापकर्म कहते हैं।
(५५) जिन कर्मसे इष्ट वस्तुका वियोग होने पर शोक हो, उसे 'शोकमोहनीय' पोपकर्म कहते हैं।
(५६) जिस कर्मसे, विनाकारण या कारणवश दिलमें भय हो, उसे 'भयमोहनीय' पापकर्म कहते हैं ।
(५७) जिस कर्मसे दुर्गन्धी या बीभत्स पदार्थों को देखकर घृणा हो, उसे 'जुगुप्सोमोहनीय' पापकम कहते हैं।
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(३८)
*नवतस्व*
__(५८-६०) स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुन्सकवेदका मतलब पहले लिखा जा चुका है ।
(६१) जिह कर्मसे तियश्चगति मिले, उसे 'तिर्यश्चगति पापकर्म कहते हैं।
(६२) जिस कर्मसे जीवको जबरदस्ती तिर्यश्चगतिमें जाना पड़े, उसे 'तिर्यश्चानुपूर्वी पापकर्म कहते हैं ।
इग-बि-ति-चउजाईनो,
कुखगइ उवघाय हुंति पावस्स । अपसत्थं वरणचउ,
अपढमसंघयण-संठाणा ॥ १६ ॥ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिकर्म, अशभविहायोगति नामकर्म, उपघातकर्म, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, अप्रथम संहनन अर्थात् ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलिका
और सेवात संहनन, अप्रथम संस्थान अर्थात् न्यग्रोध, सादि, कुब्ज, वामन और हुँड संस्थान । ये बयासो भेद पापतत्वके हैं ।। १६॥
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• पापतत्व *
(३६)
(६३) जिस कर्भसे जीवको एकेन्द्रिय जाति मिले, उसे 'एकेन्द्रियजाति' पापकर्म कहते हैं इसो प्रकार:
(६४) द्वीन्द्रिय, (६५) श्रोन्द्रिय, और (६६) चतुरि. न्द्रियजाति पोषकर्मो का समझना चाहिये ।
(६७) जिस कम से जीव, ऊंट या गधे जैसा चले, उसे 'अशुभविहायोगति' पापकर्म कहते हैं।
६८) जिस कम से जीव अपने ही अवयवों से दुखी हो, उसे 'उपधात' पापकर्म कहते हैं। वे अवयव प्रतिजिह्वा [ पडजीम ], कण्ठमाला, छठी अंगुली आदि हैं।
(६६-७२) जिन कर्मो से जोव का शरीर अशुभवर्ण अशुभ रस और अशुभ स्पर्श वाला हो, उनको क्रमसे 'प्रशस्तवर्ण' 'प्रशस्तगन्ध' 'अप्रशस्तरस' और 'प्रशस्तस्पर्श पापकर्म कहते हैं। __ नील और कृष्णवर्ण अशुभ वर्ण हैं । दुगंध, अशुभ गन्ध । गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीत स्पर्श, अशुभ स्पर्श : तिक और कटु रस, अशुभ रस हैं।
(७३-७७) जिन कर्मोंसे अन्तिम पांच संहननोंकी प्राप्ति हो, उन्हें 'अप्रथमसंहनन' नाम पापकम कहते हैं ।
पांच संहनन ये हैं:-ऋषभनाराच, २. नाराच, ३ अर्धनाराच, ४ कीलिका और ५ सेवार्च ।
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* नवतत्त्व *.
१-हड्डियों को सन्धिमें दोनों ओरसे मर्कटबन्ध और उनपर लपेटा हुश्रा पट्टा हो लेकिन खील ना हो, वह 'ऋषभनाराच संहनन है।
२-दोनों ओर सिर्फ मर्कटबन्ध हो, वह 'नाराच' ।
३ एक ओर मर्कटबन्ध और दूसरी तरफ खीला हो, तो 'अर्धनाराचं'। __४-मर्कटबन्ध न होकर सिर्फ खीले से ही हड्डियां जुड़ी हों, तो कीलिका'।
५-खीला न होकर इसी तरह हड्डियां आपस में जुड़ी हों; तो 'सेवाते।
(७८--२) जिनकर्मों से अन्तिम पांच संस्थानोंकी प्राप्ति हो; उन्हें अप्रथमसंस्थान' नाम पापकर्म कहते हैं।
पांच संस्थान ये हैं:-१ न्यग्रोधपरिमण्डल; २ सादि: ३ कुब्ज; ४ बामन और ५ हुँड ।
१-चड़के वृक्षको न्यग्रोध कहते हैं, वह जैसे ऊपर पर्ण और नीचे हीन होता है, वैसे ही, जिस जोव के नाभिका ऊपरी भाग पूर्ण नीचे का हीन हो, तो 'न्यग्रोधपरिमण्डल' संस्थान समझना चाहिये। ___ २-नाभिके नीचे का भाग पूर्ण और ऊपर का हीन हो, तो 'सादि।
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पापसत्र #
(४१)
३- हाथ, पैर, सिर श्रादि अवयव ठीक हों और
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पेट तथा छाटी होन हो तो, 'कुब्ज' ।
४- छाती और पेटका परिमाण ठीक हो और हाथ पैर सिर आदि छोटे हों, तो, 'वामन' । ५ - शरीर के सब अवयव हीन हों, तो, 'हुँड' ।
थावरसुहुम पज्ज', साहारणमथिरमसुभदुभगाणि ।
दुस्सरणाइज्जजसं.
थावरदसगं विवज्जथं ॥२०॥
"इस गाथा में पहले कहे हुये स्थावरदशक का वर्णन है। " स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशः कीर्ति ये पुरायतस्त्र में कहे हुये दशकसे विपरीत अर्थवाले हैं ॥ २० ॥
( १ ) जिस कर्म से स्थावर शरीर की प्राप्ति हो, उसे 'स्थावर' नामकर्म कहते हैं। स्थावर शरीखाले एकेन्द्रिय जीव, गरमी या सर्दीसे, चल फिर न सकने के कारण अपना बचाव नहीं कर सकते ।
(२) जिस कर्मसे श्रांखसे नहीं देखने योग्य शरीर मिले उसे 'सूक्ष्म' नामकर्म कहते हैं ।
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* नवतरख *
०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
निगोदके जीव, सूक्ष्म शरीरवाले होते हैं।
(३) जिस कर्मसे अपनी पर्याप्तियां पूरी किये बिना ही जीव मर जावे, उसे 'अपर्याप्त नामकर्म कहते हैं।
(४) जिस कर्मसे अनन्त जीवों को एक शरीर मिले, उसे 'साधारण' नामकर्म कहते हैं । जैसे:---आलू, जमीकन्द आदिके जीव।
(५) जिस कर्मसे कान, भोंह, जीम आदि अवयव अस्थिर होते हैं; उसे 'अस्थिर' नामकर्म कहते हैं।
(६) जिस कमसे नाभिके नीचेका भाग अशुभ हो, उसे 'अशुभ' नामकर्म कहते हैं। __(७) जिस कर्मसे जीव किसीका प्रीतिपात्र न हो, उसे 'दुर्भग' नामकर्म कहते हैं। ____ (८) जिस कर्मसे जीवका स्वर सुनने में बुरा लगे, उसे 'दुःस्वर' नामुकर्म कहले हैं। ___() जिस कर्मसे जीवका वचन, लोगोंमें माननीय न हो, उसे 'अनादेय' नामकर्म कहते हैं ।
(१०) जिस कर्म से लोकमें अपयश और अपकीर्ति हो, उसे 'अयशकीर्ति' नामकर्म कहते हैं।
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* आस्रवतत्व *
(४३)
00000000000000000000०००००००००००००००००००००
प्रास्त्रवतत्त्व। इंदिन कसाय अव्वय,
जोगा पंच चउ पंच तिनि कमा। किरिश्रानो पणवीसं,
इमा उ ताऊ अणुक्कमसो ॥ २१ ॥ "इस गाथा में प्रास्रव के बयालीस भेद कहे हैं।" पांच इन्द्रियाँ; चार कषाय, पाँच अवत, तीन योग और पञ्चीस क्रियायें, ये आस्रव के बयालीस भेद हैं ॥२१॥ 'श्रोस्रव के दो भेद हैं; भावास्रव और द्रव्यास्रव ।
जीवका शुभ, अशुभ परिणाम, भावात्रव' कहलाता है।
शुभ-अशुभ परिणामों को पैदा करनेवाली बयालीस प्रकारकी वृत्तियोंको 'द्रव्यास्रव कहते हैं. ___ इन्द्रियाँ दो तरहकी हैं; द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय पुद्गल रूप है और भावेन्द्रिय है जीव की शब्दादिको ग्रहण करने की शक्ति ।
काय चार हैं;- क्रोध, मान, माया और लोम।
पाँच अवत:-प्राणातिपात ( हिंसा ), मृषावाद ( मठ बोलना), प्रदत्तादान (चोरी), मैथुन और परिग्रह (मृच्छी)।
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(४४)
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* नवतस्त्र
तीनयोगः - मनयोग, वचनयोग और काययोग । गिरणीया, पाउसिया पारितावणी किरिया ।
काइ
पाणाइवाइरंभित्र,
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परिग्गहिया मायवतीया ॥ २२ ॥
"इस गाथा में तथा आगे की दो गाथाओं में पचीस क्रियाओं के नाम है ।"
कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी, आरम्भिको, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्य यिको ||२२||
(१) असावधानी से शरीर के व्यापार से जो क्रिया लगती है उसे 'कायिकी' कहते हैं ।
(२) 'जिस क्रिया से जी मरकमें जाने का अधिकारी होता है उसे 'अधिकरणिकी' कहते हैं। जैसे खड्ग श्रादिसे जीवकी हत्या करना ।
ऊपर द्वेष करनेसे
(३) जीव तथा श्रजीवके 'प्राद्वेषिकी' क्रिया लगती है ।
(४) अपने आपको और दूसरों को तकलीफ पहुँचाने
से 'पारितानिकी' क्रिया लगती है ।
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भाखवतस्व.
(४५)
100000000000०-०००००००००००००००००००....
(५) दूसरों के प्राणोंका नाश करने से 'प्राणाति. पातिकी क्रिया लगती है।
(६) खेती श्रादि करनेसे 'प्रारम्भिकी क्रिया लगती है।
(७) धान्य वगैरह के संग्रह तथा उस पर ममता करनेसे 'पारिवाहिको' क्रिया लगती है। (८) दूसरोंको ठगनेसे 'मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है।
मिच्छादसणवत्ती,
___अप्पचक्खाणी य दिट्ठी पुट्ठी श्र। पाडचित्र सामंतो,
वणीश्र नेसत्थि साहत्थि ॥२३॥ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी, दृष्टिकी, स्पृष्टिकी, प्रातीत्यकी, सामंतोपनिपातिकी, नैशास्त्रको स्वास्तिको ॥ २३ ॥ ___(8) जिनेन्द्रवचनसे विपरीत मिथ्यादर्शनसे मिथ्या: दर्शनप्रायकी क्रिया लगती है।
(१०) संयमके विघातक कषायोंके उदयसे प्रत्याख्यान न करना उसमे 'अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है।
(११) रागादिकलुषित चित्तसे पदार्थोंको देखने से 'टिको क्रिया लगती है।
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नवतव*
(१२) रागादिकलुषित चित्तसे स्त्री आदिके अंगका स्पर्श करनेसे 'स्पृष्टिकी' क्रिया लगती है।
(१३) जीवादि पदार्थोंको लेकर कर्मबन्धनसे जो क्रिया लगती है उसे 'प्रातीत्यकी' कहते हैं ।
(१४) अपना वैभव देखनेके लिये आये हुये लोगों की वैभवविषयक प्रशंसा सुनकर खुश होनेसे तथा घी तेल प्रादिके खुले बर्तनों में त्रस जीवोंके गिरनेसे जो क्रिया लगती है उसे 'सामन्तोपनिपातिकी' कहते हैं।
(१५) राजा श्रादिके हुक्मसे यन्त्र, हथियार श्रादिके बनाने तथा खींचने श्रादिसे जो क्रिया लगती है उसे 'नैशस्त्रिकी' कहते हैं।
(१६) हिरन, खरगोश आदि जीवोंको शिकारी कुत्तों से मरवाने या खुद मारनेसे जो क्रिया लगती है उसे 'स्वहस्तिकी' कहते हैं।
प्राणवणि विश्रारणिया,
अणभोगा अणवकंखपञ्चइया । अन्ना पत्रोग समुदाण,
पिज दोसेरिअावहिबा ॥२४॥
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* मास्रवतत्व *
(४७)
श्रानयनिकी, वैदारणिकी, अनाभोगिकी, अनवकांचाप्रत्ययिकी, प्रायोगिकी, सामुदायिको, प्रेमिकी, द्वेषिको और ऐपिथिकी । इन पच्चीस क्रियाओंसे कर्मका भास्रव होता है ।। २४॥
(१७) जीव तथा जड़ पदार्थोंको किसीके हुक्मसे या खुद लाने लेजानेसे जो क्रिया लगती है उसे 'पानर्यानकी' कहते हैं।
(२८) जीव और जड़ पदार्थोंको चीरने फाइनेसे जो क्रिया लगती है, उसे 'वेदारणिकी' कहते हैं ।
(28) बेपर्वाहीसे चीजों के उठाने रखने तथा चलने फिरनेसे जो क्रिया लगती है, उसे 'अनाभोगिकी' कहते हैं।
(२०) इस लोक तथा परलोकके विरुद्ध आचरण करनेसे 'अनवकाक्षाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है।
(२१) मन, वचन और शरीरके अयोग्य व्यापारसे 'प्रायोगिकी' क्रियो लगती है ।
(२२) किसी महापापसे आठों कर्मोंका समुदितरूपसे बन्धन हो, तो 'सामुदायिको' क्रिया लगती है।
(२३) माया और लोभ करनेसे जो क्रिया लगती है उसे 'प्रेमिकी' कहते हैं।
(२४) क्रोध और मानसे 'द्वेषिको क्रिया लगती है।
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* भवतस्स *
●ं
(२५) सिर्फ शरीरव्यापारसे जो क्रिया लगती है उसे
'ऐर्यापथिक' कहते हैं ।
यह क्रिया श्रप्रमत्त साधु तथा सयोगो केवलीको भी लगती है ।
-
संवरतत्त्व |
समिई गुत्ति परीसह,
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जइधम्मो भावणा चरिताणि ।
पण ति दुवीस दस बार, पंच भेएहिं सगवन्ना ॥२५॥
"इस गाथा में संवरके सत्तावन भेद गिनाये हैं" पाँच समिति, तीन गुप्ति, बाईस परीसह, दस प्रकार, का यतिधर्म, बारह भावना और पाँच प्रकारका चारित्र, ये संवरके सत्तावन भेद हैं ॥ २८५ ॥
संवरके दो भेद हैं; द्रव्यसंवर और भावसंवर । श्रावे हुये नवीन कर्मको रोकनेवाले श्रात्मा के परिणामको 'भावसंवर' कहते हैं और कर्मपुद्गलकी रुकावटको 'द्रव्यसंवर' कहते हैं ।
श्रतधर्म के अनुसार जो चेष्टा विशेष, उसे 'समिति' कहते हैं ।
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* संवरतव *
009600 000000000000 on 0.0.
पांच समितियों के और तीन गुप्तियों के नाम ।
इरिया भासणादाणे, उच्चारे समिई |
मणगुत्ति वयगुत्ति,
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कायगुत्ति तहवे ॥ २६॥
9
(४६)
ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, श्रदान निक्षेपसमिति, और पारिष्ठापनिका समिति, ये पांच समितियाँ हैं । मनगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति, ये तीन गुप्तियाँ हैं ।
...
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सम्यक् चेष्टाको समिति कहते हैं, और मन वचन और कायाके अशुभ व्यापारों को रोकना गुप्ति कहलाता है ।
(१) कोई जीव पैरसे न दब जाय इस प्रकार राहमें सावधानी से चलना, उसे 'समिति' कहते हैं।
(२) निर्दोष भाषा बोलनेको 'भाषासमिति' कहते हैं । (३) निर्दोष आहार जो बयालीस दोषोंसे रहित होता है, उसको लेना, 'एषण समिति' कहते हैं ।
(४) दृष्टि से देखके और रजोहरण से प्रमार्जन करके चीजों का उठाना और रखना. 'आदाननिक्षेप समिति' कहलाती है
I
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(५०).......
*नवतस्त्र *
(५) कफ, मूत्र, मल आदिको जीवरहित जगह में छोड़ना, 'पारिष्ठापनिका' समिति कहते हैं।
तीन गुप्ति । (६) मनोगुप्तिके तीन भेद हैं; असत्कल्पनावियोगिनी, समतामाविनी और आत्मारामता।
आर्त तथा रौद्र ध्यान सम्बन्धी कल्पनाओंका त्याग, असत्कल्पनावियोगिनी' सब जीवों में समान भाव, 'समताभाविनी' । केवलज्ञान होने के बाद सम्पूर्ण योगों के निरोध करने के समय 'प्रोत्मारामता' ।
(७) वचनगुप्तिके दो भेद हैं; मौनावलम्बिनी और वानियमिनी । किसी अभिप्राय को समझाने के लिये भ्रकुटि आदि से संकेत न करके मौन धारण करना, 'मौनावलम्बिनोबांचने या पूछने के समय मुहके सामने 'मुखवत्रिका धारण करना, 'वानियमिनी' ।
(E) कायगुप्ति के दो भेद हैं; चेष्टानिवृत्ति और यथासूत्रचेष्टानियमिनी: योगनिरोधावस्था में केवली का सर्वथा शरीर चेष्टा का परिहार तथा २ कायोत्सर्ग में अनेक प्रकार के उपसर्ग होते हुए भी शरीर को स्थिर रखना, चेष्टानिवृत्ति' । साधु लोग, उठने बैठने सोने आदिमें जैन
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*संवरतंव *
(११) 00000000000000000000000000000000000000000 सिद्धांत के मुताबिक शरीर के व्यापार को नियमित रखते है, उसे 'यथासूत्र चेष्टानियमिनी' कहते हैं । पांच समिति और तीन गुप्तिको 'अष्टप्रवचनमाता' कहते हैं।
खुहा पीवासा सि उरहं,
दंसा चेलाऽरइथियो। चरित्रा निसिहिया सिज्जा,
अक्कोस वह जायणा ॥२७॥ "इस गाथामें तथा अगली गाथामें बाईस परिसहोंका वर्णन है।"
क्षुधा, पिपासा, शीत; उष्ण, दंश, चेल, अरति, स्त्री, चर्या, नैपेधिकी, शय्या, आक्रोश, वध, याचना।
धर्मको स्वाके लिये कर्मोको निर्जरा के लिये प्राप्त हुये दुःखों को सब तरह से. सहन करना; 'परिसही कहलाता है ॥२७॥ र
(१) क्षुधापरिसह--सुधाके समान कोई चीज अधिक पीड़ा देनेवाली नहीं है । भूख से पेटकी भाँते जलने लगतो हैं । कैसी भी तेज भूख लगे तो भी साधुलोग, निर्दोष आहार जब तक नहीं मिलता है तब तक भूख की पीड़ाको सहन करते हैं । तुधापरिसह सब परिसहों से 'कदा है इसलिये प्रथम कहा गया।
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(५२)
*नवतस*
(२) पिपासा-जबतक प्रचित्त जल न मिले तबतक प्यासके बेगको सहना।
(३) शीव -कड़ी ठएड पड़ती हो तोभी भाग जलाकर तापे नहीं, न दूसरेकी जलाई भागसे भी शीत दूर करे। अकल्पनीय वखोंकी इच्छा न करे । जो कुछ फटे पुराने वन अपने पास हों उसीसे काम निकाले और ठण्डको शानचित्तसे सहन करे।
(४) उष्ण-अत्यन्त गरमी पड़ती हो तोभी साधु स्नान करनेकी इच्छा न करे । छत्र धारण न करे। पंखेकी हवा न करे, गरमीको सहन करे।
(५) देश-वर्षाऋतुमें मच्छर आदि जीवोंका बहुत उपद्रव रहता है, कार्योत्सर्ग आदि धर्मक्रियाओं में वे जन्तु काटते हैं, उसे सहन करे।
(६) अचेल-चेलका अर्थ है वस्त्र, उसका प्रभाव, अचेल कहलाता है। यहाँ अलका मतलब सर्वथा वस्त्रोंका प्रभाव नहीं समझना चाहिये किन्तु आगममें साधुओं को जितने वस्त्र रखनेको आज्ञा है उतने ही रक्खे। कीमती नये वस्त्रोंकी इच्छा न करे, जो कुछ फटे पुराने वस्त्र हों उनमें सन्तोष रक्खे।
(७) अरति-अपने मनके माफिक उपाश्रय, आहार भादि न मिलनेसे दुखो न होवे ।
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* संवरतत्र * ..................0000000000000000000.
(८) स्त्रो-त्रियोंके अंगप्रत्यंगोंको न देखे। उनके साथ एकान्तमें बात चीत करना, हँसना श्रादि व्यापार न करे । मोक्षमार्गमें उन्हें अर्गलाके समान समझकर कभी कामदृष्टि से देखे नहीं।
(8) चर्या-बहता हुआ जल और बिहार करनेवाला साधु, दोनों स्वच्छ रहते हैं इसलिये साधुको किसी एक जगह अधिक ठहरना न चाहिये । धर्मका उपदेश देते हुये अप्रतिबद्ध विहार करे।
(१०) नैषैधिकी-स्मशान, शून्यमकान, सिंहकी गुफ़ा श्रादि स्थानों में ध्यान करने के समय, विविध उपसर्गों के होनेपर निषिद्ध चेष्टा न करे। .. (११) शय्या-जहाँ ऊँची नीची जमीन हो, धूल पड़ी हो, विस्तर दुरुस्त न हो, तो नींद में खलल पहुँचता है तो भी मनमें उद्वेग न करे।
(१२) आक्रोश-कोई गाली दे या कटु वचन पोले, तो उसे सहन करे।
(१३) वध-कोई दुष्ट मार पीट करे या जानसे मार डाले तो भी साधु क्रोध न करे।
(१४) याचना–साधुको चाहिये कि यदि आहार भादि चीज, गृहस्थ लाकर अपने स्थानपर पहुँचाने नो न
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(५४)
*नवतत्त्व *
............
लेवे किन्तु खुद भिक्षा माँगकर लावे । मांगने में कोई अपमान करे तो बुरा न माने, न भिक्षा मांगने में लज्जा करे।
अलाभ रोग तणफासा,
मल सक्कार परीसहा । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं,
इश बाविस परिसहा ॥२८॥ अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और सम्यक्त्व ये बाईस परीसह हैं ।। २८ ॥
(१५) लाभान्तराय कर्मका जब उदय होता है तो मांगनेपर भी वस्तु नहीं मिलती चाहे वह चीज दाताके घरमें अधिक हो। साधु लोग निर्दोष आहार भादिकी अप्राप्तिसे उद्वेग करें कि यह समझकर कि अन्तराय कर्मका उदय है, सचित्त बने रहें । इसे. 'श्रलाभपरिसह कहते हैं।
(१६) रोग-ज्वर, अतिसार आदि भयङ्कर रोग होनेपर जिनकल्पी साधु चिकित्सा करानेकी इच्छा भी न करे किन्तु अपने कृतकका परिपाक समझकर वेदनाको सहन करे । स्थविस्कल्पी साधु आगमोक्त विधिसे निरवद्य
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* संवरतस्व *
(५५)
चिकित्सा करावे और कर्मफल मिल रहा है ऐसा विचार करे किन्तु वेदनाप्रयुक्त ध्यान न करे ।
(१७) तृणस्पर्श - रोगपीड़ित साधु, घास श्रादिके विस्तर के तृणके गड़ने से दुखी न हो किन्तु शान्तचित्तसे वेदना सहन करे ।
(१८) मल - पसीने से शरीरमें मल बढ़ जाय, दुर्गन्ध आने लगे, तौभी स्नान करनेकी इच्छा न करे ।
(१६) सत्कार - लोकसमुदाय यो राजा महाराजाओं की स्तुति, वन्दना या आदर सत्कार से साधु अपना उत्कर्ष न समझे । और न आदर-सत्कारके न पानेसे दुखी हो ।
( २० ) प्रज्ञा - बड़ी विद्वत्ता होनेपर भी साधु घमण्ड न करे तथा अल्प ज्ञान होनेपर भी शोक न करे ।
(२१) अज्ञान -- ज्ञानधरणीय कर्म के उदयसे पढ़ने में मेहनत करने पर भी विद्या हांसिल नहीं होती । साधु कभी ऐसा दुर्ध्यान न करे कि, "मैंने गृहस्थाश्रम छोड़ा, साधु बना हूं, तप जप करता हूं, पढ़ने में मेहनत करता हूं तो भी मुझे विद्या प्राप्त नहीं होती इसलिए मुझे धिकार है कि साधु होकर भी मैं मूर्ख हूँ" किन्तु अपने किये कर्मका फल सोचकर सन्तोष करे ।
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(५६)
* नवतश्व *
(२२) सम्यक्त्व जैनसिद्धान्त, देव, गुरु, धर्म मादि जिनोपदिष्ट पदार्थों में सन्देह न करे ।
खंती मद्दव अज्जव, ___ मुत्ती तव संजमे अबोधब्बे । सच्चं सोनं आकिं-,
चणं च बंभं च जइधम्मो ॥२६॥ "इस गाथा में दस प्रकार के यति धर्म का वर्णन है ।
क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, मुक्ति (सन्तोष), तप, संयम, सत्य, शौच, अकिञ्चनत्व और ब्रह्मचर्य, ये दस यति के धर्म हैं ॥२६॥
सब प्राणियों पर समान दृष्टि रखने से क्रोध नहीं होता । क्रोधका न होना, 'क्षमा' कहाती है।
अहङ्कारका त्याग, 'मार्दव' कहाता है । कपट न करना, 'आर्जव' कहाता है। लोभ न करना 'मुक्ति' कहोती है । इच्छाका निरोध, 'तप' कहाता है । बाह्य और अभ्यन्तर भेद से बारह प्रकार का तप है।
प्राणातिपातादि (हिंसा आदि ) का त्याग, 'संयम' कहाता है।
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*संवरतत्त्व *
(५७) 0000000000000000000000000000000000000000
सच बोलना, 'सत्य' कहाता है।
किसो जीव को तकलीफ न हो ऐसा बर्ताव करना, हाथ, पैर आदि को पवित्र रखना, चोरी न करना, 'शौच' कहाता है।
सब परिग्रहों का त्याग, 'अकिंचनत्त्व' कहाता है। मैथुन का परित्याग, ब्रह्मचर्य कहाता है।
ऊपर कहे हुये दस गुण जिसमें हों, उसे साधु समझना चाहिये ।
पढममणिच्चमसरणं,
संसारो एगया य अण्णत्तं । असुइत्त अासव संवरो,
अ तह हिज्जरा तवमी ॥३०॥ "इस गाथा में तथा आगे की गाथा में बारह भावनाए
कही गई हैं।" अनित्यभावना, अशरणभावना, संसारभावना, एकत्वभावना, अन्यत्वभावना, अशुचित्वभावना, प्रास्त्रवभावना, संवरभावना, निर्जराभावना ॥३०॥
(१) धन, यौवन, कुटुम्ब श्रादि, संसार के सब
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* नवतत्त्व * 00000000000000000000000000०.००००० पदार्थ अनित्य है, ऐसा चिन्तन करना 'अनित्यभावना कहाती है।
(२) सम्राट, चक्रवर्ती, इन्द्र, तीर्थङ्कर श्रादि महापुरुषों को भी मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता, फिर साधारण जीवों की तो बात ही क्या ? मृत्यु के मुख में पड़े हुए जीवका धन, कुटुम्ब श्रादि कोई शरण नहीं है, ऐसा हमेशा विचार करना तथा सिवा धर्मके किसीको शरण न मानना, 'अशरणभावना' कहाती है ।
(३) चौरासी लाख योनियों में जीव भ्रमण करता है। किसी योनिमें माता; स्त्री बन जाती है; स्त्री माता बन जाती है; पिता, पुत्र बन जाता है; पुत्र, पिता बन जाता है; संसार की इस तरहकी अव्यवस्था का हमेशा विचार करना, 'संसारभावना' कहाती है।
(४) यह जीव संसार में अकेला श्राया है, अकेला ही जायगा और अकेला ही सुख या दुःख भोगेगा, कोई साथी होनेवाला नहीं, ऐसा हमेशा विचार करना, 'एकत्वभावना' कहाती है।
(५) आत्मा, ज्ञानस्वरूप है; शरीर जड़ है; शरीर श्रात्मा नहीं, न आत्मा शरीर है, शरीर, इन्द्रिय, मन, धन, कुटुम्ब आदि, आत्मा से जुदे हैं, ऐसा हमेशा विचार करना, 'अन्यलमावना' कहाती है।
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* संवरतत्र *
(५६)
(६) यह शरीर, खून, मांस, हड्डी, मल, मूत्र आदिसे भरा है; यह शरीर किसी उपाय से पवित्र होनेवाला नहीं है, ऐसा हमेशा विचार करना, 'अशुचित्वभावना' कहाती है।
(७) संसार के जीव क्रोध, मान, माया, लोम, मिथ्याज्ञान आदि से नये नये कर्म बांधते हैं, ऐसा हमेशा विचार करना, 'श्रावभावना' कहाती है। ___ (८) कर्मबन्ध के कारणभूत, मिथ्याज्ञान आदि को रोकने के उपाय सम्यज्ञान आदि है, ऐसा विचार करना, 'संवरभावना' कहाती है। __(8) निर्जराभावना दो तरह की है; सकामा
और अकामा । समझकर तपके जरिये कर्मका क्षय करना सकामा । बिना समझे भूख प्यास आदि दुखों के वेग को सहन करनेसे जो कर्मक्षय होता है, उसे अकामा कहते हैं। ऐसे चिन्तनको 'निर्जराभावना' कहते हैं।
लोगसहावो बोही,
दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एआश्रो भावणाओ,
भावेश्रवा पयत्तेणं ॥ ३१ ॥
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* नवतस्व* .00000000000000000oruwaonuno.000000000000
लोकस्वभावभावना, बोधिदुर्लभभावना और धर्मके कथक-उपदेशकर्ता सर्वज्ञ वीतरागका पाना मुश्किल है, इस तरहको धर्मभावना, इन पारह भावनाओंको प्रयत्नसे विचारे ॥ ३१॥
(१०) कमर पर दोनों हाथोंको रखकर और पैरोंको फैलाकर खड़े हुये पुरुषकी प्राकृतिके समान यह लोक है, जिसमें धर्मास्तिकायादि छह द्रव्य भरे पड़े हैं। ऐसा विचार करना, 'लोकभावना' कहाती है।
(११) संसारमें अनन्तकालसे जीव भ्रमण कर रहा है। अनेकवार चक्रवर्तीके जैसी ऋद्धि पाई: मनुष्यजन्म, उत्तम कुल, आर्य देश पाया तथापि सम्यज्ञान (यथार्थज्ञान ) पाना मुश्किल है, इस भावनाको 'बाधिदुर्लभभावना' कहते हैं।
(१२ ) संसारसमुद्र पार उतारनेमें नौकाके समान ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप धर्मका उपदेश करने वाले अरिहंत आदिको पाना तथा उसके कहे हुए धर्मको पाना मुश्किल है; ऐसे विचारको 'धर्मभावना' कहते हैं।
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सामाइअत्थ पढ़म.
छेप्रोवट्ठावणं भवे बीअं।
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* संवरतत्त्व *
BooooDOO90.000000000000000०......००००.
परिहारविसुद्धीअं,
सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३२ ॥ "इस गाथा में पाँच प्रकार के चारित्रका वर्णन है।"
सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनीयचारित्र, परिहारविद्धिचारित्र, सूक्ष्मसंपरायचारित्र ॥ ३२ ॥
(१) सामायिक में दो पद हैं; सम और आयिक सम याने रागद्वेष रहितपना उसकी आय याने प्राप्ति जिससे हो उसे सामयिक कहते हैं । सदोष व्यापारका त्याग और निर्दोष व्यापारका सेवन अर्थात् जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी प्राप्ति हो, उस व्यापारको 'सामायिकचारित्र' कहते हैं।
(२) प्रधान साधुके द्वारा दिये हुये पाँच महाव्रतों को 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं ।
(३ ) तपोविशेष द्वय कर्मोंकी विशुद्धि याने निर्जरा जिससे होती है उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं । नव साधु गच्छसे अलग होकर सिद्धान्तमें लिखी हुई विधिके अनुसार अठारह मास तक तप करते हैं, उसे 'परिहारविशुद्धिचारित्र' कहते हैं।
(४) जिस स्थिति में केवल सूक्ष्मसंपराय कषाय (लोभ) का ही उदयरह जाता है उसको सूक्ष्मसंपरायचारित्र
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*नवतस्त्र *
.(६२)........... * नवतत्व *... कहते हैं । यह चारित्र दसवें गुणस्थानक में पहुँचे हुये साधु को होता है।
तत्तो अ अहक्खायं,
खायं सम्बंमि जीवलोगंमि । जं चरिऊण सुविहिवा;
वच्चंतिऽयरामरं ठाणं ॥३३॥ सब लोक में यथाख्यात-चारित्र प्रसिद्ध है, जिसका सेवन करके साधु लोग मोक्ष पाते हैं ॥३३॥
(५) क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के सर्वथा क्षय होने पर या उपशम होने पर साधु का जो चारित्र है, उसे "याच्यातचारित्र" कहते हैं ।। ___ इस जमाने में आदि के दो चारित्र हैं, अन्त के तीन म्युच्छिन्न हुये।
संवरतत्त्व समाप्त।
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* निर्जरातत्व *
निर्जरातत्त्व |
अणसमूणोरिया, वित्तीसंखेवणं रसचाओ ।
कायकिलेसो संलीणया, य बज्को तवो होइ ॥ ३४॥
(६३)
"इस गाथा में छह प्रकार का बाह्य तप कहा है ।" अनशन, ऊनोदरता, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता, ये छह प्रकार के बाह्य तप हैं ||३४||
(१) आहार का त्याग, 'अनशन' कहलाता वह दो प्रकार का है; 'इत्वर' और 'यावत्कथिक' । चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम आदि तप, 'इत्वर' कहलाता है और जब तक जीवे तब तक आहार का त्याग 'यावत्कथिक' तप कहलाता है ।
(२) आहार कम करना, 'ऊनोदरता' तप कहाता है।
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(३) वृत्तिका - जीवन के निर्वाह की चीजों का संक्षेप करना, 'वृत्तिसंक्षेप' तप है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से चार प्रकार का यह तप है 1
(४) दूध, घी, तेल, दही, गुड़, तली हुई चीजें श्रादिका
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(६४)
*नवतत्व*
त्याग, 'रसत्याग' कहलाता है; जैसे नीवी, श्राम्बिल श्रोदि तप।
(५) साधु लोग, लोच करते हैं अर्थात् सिरके बाल उखाड़ते हैं, कायोत्सर्ग करते हैं और भी अनेक प्रकारसे शरीरको कष्ट पहुँचाते हैं, उसे सहते हैं, यह सब 'कायक्लेश' तप कहलाता है।
(६) इन्द्रियोंको वशमें रखना; क्रोध, लोभ आदि न करना; मन, वचन, कायासे किसी जीवको तकलीफ न होने देना; उपाश्रय आदि एकान्त जगहमें रहना: यह 'संलीनता' तप कहलाता है।
-
-
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पायच्छित्तं विणो,
यावच्चं तहेव सज्झायो। माणं उस्सगो वि श्रा
अभितरो तवो होइ ॥३५॥ "इस गाथा में छह प्रकारका अभ्यन्तर तप कहा है।"
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग, ये छह अभ्यन्तर तप हैं ।। ३५ ।।
(१) जो पाप किये हों, उन्हें गुरुके पास कहे,
कारक
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*निर्जरातत्व
(६५)
00000000000000000००००००००००००००००००००००
पापशुद्धिके लिये गुरु जो तप बतलायें, उसे करे, यह 'प्रायश्चित्त' कहाता है। ___ ( २ ) देव, गुरु, माता, पिता भादि पूज्योंका
आदर-मत्कार करना उन्हें अपने शुद्ध भाचरणसे मन्तुष्ट रखना; इसे 'विनय' कहते हैं।
(३) आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी, दीन आदिको अन्न, जल, बख, ठहरनेकेलिये जगह भादि देना; इसे "वैयाप्रत्य" कहते हैं। __ (४ ) पड़ना, पढ़ाना, सन्देह होनेपर गुरुसे पूछना, पढ़े हुये ग्रन्थको याद रखना, धर्मकी कथा कहना, धर्मका उपदेश देना; यह सब 'स्वाध्याय' कहलाता है।
(५) चित्तको एकाग्रताको 'ध्यान' कहते हैं, उसके चार भेद हैं;-पात, रौद्र, धर्म और शुक्ल ।
आर्त और रौद्र ध्यानका त्याग करना चाहिये । धर्म और शुक्ल ध्यानका सेवन करना चाहिये।
श्रात-मित्र, माता, पिता आदिकी मृत्यु होनेपर शोक करना; कोड़ी, रोगी आदिको देखकर घृणा करना; शरीरमें कोई रोग होनेपर उसीकी चिन्ता करना; इस जन्ममें किये हुये दान मादि तपका दूसरे जन्ममें अच्छे फल पानेकी चिन्ता करना; ये सब 'पार्तध्यान' कहलाते है।
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* नवतत्त्व *
रौद्र-द्वेषसे किसो जीवको मारने या उसे कष्ट पहुँचानेकी चिन्ता करना; छल कपट करके दूसरेका धन लेनेकी चिन्ता करना; हिस्सेदार कुटुम्बी मर जाँय तो मैं अकेला ही मालिक बन बैठूगा ऐसी चिन्ता करना; ये सब 'शैद्रध्यान' कहाते हैं। ____धर्म-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वैराग्य आदिकी भावना करना; सर्वज्ञ वीतराग के उपदेश रूप सिद्धांत में सन्देह न करके उसपर पूरी श्रद्धा रखना; राग, द्वेष, क्रोध, काम, लाभ, मोह आदि, इस लोक तथा परलोक में भी दुःख देने वाले हैं ऐसा चिन्तन करना; सुख दु:ख प्राप्त होने पर हर्ष और शोक न कर पूर्वकर्म का फल मिल रहा है, ऐसा समझना; जिनेन्द्र भगवान के कहे हुये छह द्रव्यों का विचार करना; यह सब 'धर्मध्यान' कहातो है।
शुक्ल-शुक्ल ध्यानके चार भेद हैं: पृथक्त्ववितर्क सविचार, एकत्ववितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति और व्युपरतक्रिया अनिवृत्ति ।
(१) द्रव्य, गुण और पर्याय के जुदाई को पृथक्त्व कहते हैं; अपनी आत्माके शुद्ध स्वरूप का अनुभवरूप भावश्रुत, वितर्क कहलाता है और मन, वचन, और काय, इन तीन योगों में से एक योग ग्रहण कर दूसरेमें संक्रमण करना, विचार कहलाता है।
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*निर्जरातत्त्व *
(२) आत्मद्रव्य में उसके विकार रहित सुख के अनुभवरूप पर्याय में या निरुपाधि ज्ञानरूप गुणमें आत्मानुभवरूप मावश्रुतके बलसे स्थिर होकर द्रव्य, गुण और पर्यायोंका विचार करना।
(३) तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें मनोयोग और वचनयोगको रोकनेके बाद कामयोगको रोकने में प्रवृत्त होना।
(४)तीनों योगोंका अभाव होनेपर फिर च्युत न होनेवाला अनन्त ज्ञान, अनन्त सुखका एकरस अनुभव ।
(६) उत्सर्ग तपके द्रव्य और भावरूपसे दो भेद हैं। द्रव्य उत्सर्ग-गच्छका त्याग करके 'जिनकल्प' स्वीकार करना; अनशनव्रत लेकर शरीरका त्याग; किसी कल्पविशेषमें उपधिका त्याग; सदोष आहारका त्याग: ये सब 'द्रव्योत्सर्ग' कहलाते हैं। . ___ भावोत्सर्ग-क्रोध, मान, माया और लोभका त्याग, नरक श्रादि योनिकी आयु बाँधनेमें कारणभूत मिथ्याज्ञान
आदिको त्याग; ज्ञानके आवरण करनेवाले ज्ञानावरणीय भादि कर्मका त्याग; ये सब. 'भावोत्सर्ग' कहलाते हैं।
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* नवतश्व *
बारसविहं तवो णि,
___ जरा य बंधो चउविगप्पो । पयई-ठिइ-अणुभाग,
प्पएसभेएहिं नायब्वो ॥३६॥ "इस गाथा में कुछ अंशोंका सम्बन्ध निर्जरातत्त्वके साथ है, अवशिष्ट अंशमें बन्धतत्वके चार भेद कहे गये हैं।"
प्रथम कहे हुये बारह प्रकारके तप हो निर्जरातत्त्वके बारह भेद हैं । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और बन्ध, ये चार बन्धके भेद हैं॥ ३६॥
पयइ सहावो वुत्तो,
ठिई कालावहारणं। अणुभागो रसोणेओ,
पएसो दलसंचो ॥ ३७॥ "इस गाथामें पूर्वोक्त प्रकृति आदिका स्वरूप कहा गया है।"
कर्मका स्वभाव 'प्रकृतिबन्ध' कहा जाता है; कर्म के कालका निश्चय 'स्थितिबन्ध'; कर्मका रस 'अनुभागबन्ध' और कर्मके दलका संचय, 'प्रदेशबन्ध' कहाता है । ३७।।
प्रकृतिबन्ध-जिस तरह वात, पित्त और कफके
रुप
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*निर्जरातस्त्र
(६६) 00000000000000000000000000000000000000000 हरण करनेवाली चीजोंसे बने हुए लडडूका स्वभाव, वात भादिको दूर करना है, उसी तरह किसो कमेका स्वभाव जीवके ज्ञानका आवरण करना, किसी कर्मका जीवके दर्शनका प्रावरण करना, किसीका स्वभाव चारित्रका
आवरण करना होता है, इस स्वभावको 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं। ___ स्थितिबन्ध-जैसे बना हुआ लड्डू, महीने, छह महीने या वर्ष तक एक ही हालतमें रहता है, उसी तरह कोई कर्म अन्तमुहत तक रहता है, कोई सत्तर क्रोडाकोड़ी सागरोपम तक, कोई वर्ष तक, इसीको 'स्थितिबन्ध' कहते हैं।
अनुभागबन्ध-जिस तरह कोई लड्डू ज्यादा मीठा होता है कोई थोड़ा, कोई अधिक कडा होता है, कोई अल्प और कोई ज्यादा तीखा होता है कोई थोड़ा, इत्यादि अनेक प्रकारके समवाला होता है, उसी तरह ग्रहण किये हुये कमदलोंमें तरतममावसे देखा जाय तो किसीको रस फल ज्यादा शुभ होता है, किसीका थोड़ा
और किसीका रस-फल अधिक अशुभ होता है किसीका अल्प इत्यादि अनेक प्रकारका रस होता है, उसे 'रसबन्ध' कहते हैं । अनुभाग और रस, दोनोंका मतलब एक ही है।
प्रदेशबन्ध-जैसे कोई लड्डू पावभर, कोई मापसेर
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* नवतत्त्व * 0000000000000000000000000000000000
000.00
परिमाणका होता है । उसी तरह कोई कर्मदल, परिमाणमें कम होता है और कोई ज्यादा, अनेक प्रकारके परिमाण होते हैं, इन परिमाणोंको 'प्रदेशबन्ध' कहते हैं।
"आठ कर्मों का प्रत्येक का-स्वभाव, दृष्टान्तोंके द्वारा"
दिखलाते हैं। पड-पडिहारऽसि-मज्ज,
हड-चित्त-कुलाल-भंडगारीणं । जह एएसि भावा,
कम्माण वि जाण तह भावा ॥३८॥ पट, प्रतिहारी, असि, मद्य, कारागृह,चित्रकार, कुलाल और भण्डारी इनके स्वभाव के सदृश कर्मों का स्वभाव है ॥३८॥
(१) आँख पर बाँध हुई पट्टी के सदृश, ज्ञानावरणीय कर्मका स्वभाव है । वह आत्माके अनन्त ज्ञान को रोक देता है।
(२) द्वारपाल के समान, दर्शनावरणीय कर्म का स्वभाव है । जिस प्रकार राजा को देखने की चाहनेवाले को द्वारपाल रोकता है, उसी तरह आत्मा के दर्शन गुण को दर्शनावरणीय कर्म रोक देता है।
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* निर्जरातत्त्व * (७१) (३) वेदनीय कर्मका स्वभाव, शहद लगी हुई तलवारकी धारके सदृश है। यह कर्म आत्माके 'अव्यायाध' गुणको रोक देता है । तलवारको धारमें लगे हुये शहद को चाटने के समान, सातावेदनीय कर्मका विपाक है। खड्गधारा से जोभ के कटने पर, अनुभव में आती हुई पीड़ाके समान, असाताबेदनीय कर्म का विपाक है। सांसारिक सुख, दुःखसे मिला हुआ है इसलिए निश्चयदृष्टिसे, सिवा आत्मसुखके, पुद्गलनिमित्तक सुख, दुःखरूप ही समझा जाता है।
(४) मयके नशे के समान, मोहनीय कर्मका स्वभाव है । यह आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र गुणको ढंक देता है।
जैसे मद्यके नशेमें चूर मनुष्य,अपना हित-अहित नहीं समझ सकता, इसी प्रकार मोहनीय कर्मके उदय से आत्मा को धर्म अधर्म का भान नहीं रहता।
(५) आयुकर्मका स्वभाव, कारागृह के समान है। यह कर्म, आत्माके 'अविनाशित्व' धर्मको रोक देता है। जिस प्रकार जेलमें पड़ा हुआ मनुष्य, उससे निकलना चाहता है पर सजा पूर्ण हुये पिनो नहीं निकल सकता, उसी तरह नरकादि योनि में पड़ा हुआ जीव, श्रायु पूर्ण कि ये बिना, उन योनियों से नहीं छूट सकता।
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*नवतत्त्व *
(७२) ...
(६) नामकर्म का स्वभाव, चित्रकार जैसा है। यह कर्म, श्रात्माके 'अरुपित्व' धर्मको रोकता है। जैसे चितेरा, भले-बुरे अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म, आत्माको भले बुरे नाना प्रकारके देव-मनुष्य नारक-तिर्यञ्च बना देता है।
(७) कुम्भार जैसा गोत्र कर्म है । यह कर्म आत्मा के 'गुरुलघु' गुण को रोकता है। ___ कुम्भार घी रखने के घड़े बनाता है और मद्य रखने के भी। धोका घड़ा अच्छा समझा जाता है और मद्यका बुरो । इसी तरह गोत्र कर्मके उदय से जीव ऊंच-नीच कुलमें जन्म लेता है।
(८) अन्तराय कर्मका स्वभाव भण्डारी जैसा है। यह कर्म जीवके वीर्यगुण की तथा दान आदि लब्धियोंको रोकता है । जैसे मालिक इच्छा होते हुये भी, दुष्ट भण्डारी के कारण दान आदि नहीं कर सकता, इसी प्रकार अन्तराय कर्म के उदय से जीव दोन श्रादि नहीं कर सकता, न अपनी शक्ति का विकास कर सकता है।
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* निर्जरातत्व * (७३) 0000000000000000000000000000000000000000
"आठ कर्मों के नाम और उनकी उत्तर प्रकृतियां।" इह नाण-दसणावरण
वेय-मोहाऽऽउ-नाम-गोत्राणि । विग्धं च पण-नव-दुअ-,
हवीम-चउ-तिसय-दु-पणविहं ॥३६॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म हैं। ज्ञानावरणीय की उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैं; दर्शनावरणीय की नव; वेदनीय को दो; मोहनीयकी अट्ठाईस; श्रायुकी चार; नामकर्मको एकसौ तीन; गोत्रकी दो; और अन्तरायकी पांच उत्तर प्रकृतियां हैं ॥३३॥
"आठ कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ।" नाणे अ दंसणावरणे,
वेत्रणीए चेव अंतराए । तीसं कोडाकोडी.
अयराणं ठिइअ उक्कोसा॥४०॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय
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(७४)
* नवतत्व *
इन चार कर्मोंको उत्कृष्ट स्थिति अर्थात् अधिक से अधिक स्थिति, तोस क्रोडाकोड़ी सागरोपमकी है ॥४०॥
सत्तरि कोडाकोडी,
मोहणीए वीस नाम गोएसु। तित्तीसं अयराई,
अाउट्टिइबंध उक्कोसा ॥४१॥ मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर ७० क्रोडाकोड़ी सागसेपमकी है। नाम कर्म और गोत्र कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बीस क्रोडाकोड़ा सागरोपमको है । आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपमकी है ॥४॥
-
"आठ कर्मों की जघन्य स्थिति कहते है।" बारस मुख्त जहन्नी
वेयणीए अट्ट नाम-गोएसु । सेसाणंतमुहुत्तं,
एयं बंधट्टिईमाणं ॥४२॥ वेदनीय कर्मकी जघन्यस्थिति-अर्थात् कम से कम स्थिति, बारह मुहूर्त की है । नामकर्म और गोत्र कर्मकी
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* मोक्षतत्व *
(७५)
००००००००००००००००००
०००००.०....०००००००
जिघन्यस्थिति पाठ मुहूर्त की है । शेष कर्मों की अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीयायु, और अन्तराय इन पांच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है ॥४२॥
__ मोक्षतत्त्व। संतपयपरूवणया,
दव्वपमाणं च खित्त फुसणा य। कालो अ अंतर भाग,
भावे अप्पाबहुँ चेव ॥ ४३ ॥ "इस गाथामें मोक्षके नव भेद कहे हैं।" सत्पदप्ररूपणाद्वार, द्रव्यप्रमाणद्वार, क्षेत्रद्वार, स्पर्शनाद्वार, कालद्वार, अन्तरद्वार, भागद्वार, भावद्वार और अल्पबहुत्वद्वार, ये मोक्षके नव द्वार हैं अर्थात् मोक्षका स्वरूप समझनेके नक भेद हैं ॥ ४३ ॥
संतं सुद्धपयत्ता,
विज्जंतं खकुसुमब्व न असंतं । मुक्खत्ति पयं तस उ,
परूवणा मग्गणाईहिं ॥४४॥
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* नवतत्त्व * 10.००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
'इस गाथा में सत्पदप्ररूपणाद्वार का स्वरूप कहा है।"
मोक्ष, सत् अर्थात् विद्यमान, है क्योंकि उसका वाचक एक पद है, आकाशकुसुम की तरह वह अविद्यमान नहीं है; मार्गणा द्वारा मोक्ष की प्ररूपणा (विचार) को जाती है ॥३३॥ ___एक पदका वाच्य अर्थ अवश्य होता है; घट, पट
आदि एक पदवाले शब्द हैं उनका वाच्य अर्थ भी विद्यमान है। दो पदवाले शब्दों के वाच्य अर्थ होते भो हैं, और नहीं भो होते-जैसे 'गोशृंग' 'महिषशृङ्ग। ये शब्द. दो दो पदों से बने हैं, इनका वाच्य अर्थ, 'गायका सींग, भैंस का सींग' प्रसिद्ध है । 'खर,ग', 'अश्वशृंग' ये दो शब्द भी दो दो पदों से बने हुये हैं परन्तु इनके वाच्य अर्थ 'गधेको सींग', 'धोड़े का सींग' अविद्यमान हैं। मोक्ष शब्द एकपदवाला होनेसे उसका वाच्य अर्थ भी घट पट आदि पदार्थो की तरह विद्यमान है। इस प्रकार अनुमान प्रमाणसे मोक्ष' है, यह बात सिद्ध होती है ॥४४॥
चौदह मार्गणाओं के नाम । गई इंदिए काए
जोए वेए कसाय नाणे अ।
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* मोक्षतत्व *
(७७)
००००००००००००००००
संजम दंसण लेसा,
भव सम्मे सन्नि श्राहारे॥४५॥ १-गतिमार्गणा, २-इन्द्रियमार्गणा, ३-काय मार्गणा, ४ योग मार्गणा, ५-वेद मागणा,६-कषाय मार्गणा, ७-ज्ञान मार्गणा, E-संयम मार्गणा, 8-- दर्शन मार्गणा,१०-लेश्या मार्गणा,१? –भव्य मार्गणा, १२-सम्यक्त्व मार्गणा, १३-संज्ञी मागणा,और १४श्राहार मार्गणा ॥४५॥
मार्गणा को अर्थ और प्रत्येक के भेद अगली गाथा में कहे जायेंगे। नरगइ पणिदि तस भव,
सन्नि अहवखाय खइप्रसम्मत्ते। मुक्खोऽणाहार रेवल,
दसण नाणे न सेसेसु ॥४६॥ "इस गाथा में यह बतलाया गया है कि जीव किन
मर्गणाओं के द्वारा मोक्ष पाता है।" मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, सकाय, भवसिद्धिक, संज्ञी, यथाख्यात चारित्र, क्षायिकसम्यक्त्व, अनाहार, केवलदर्शन और केवलज्ञान, इन दस मार्गणाओं के द्वारा मोक्ष होता
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00000000000000
(७८)
* नवतत्व * है, शेष मार्गणाओं के द्वारा नहीं ॥४६॥
बद्रव्यका जिसके जरिये विचार किया जाय उसे 'मार्गणा' कहते हैं। ___ मार्गणा के मूलभूत चौदह भेद हैं और उत्तर भेद बासठ।
(१) नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार गतियों में से सिर्फ मनुष्यगति से मोक्ष मिलता है, अन्य तीन गतियों से नहीं।
(२) इन्द्रियमार्गणा के पांच भेद है, एकेन्द्रिय, दोन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनमें से पंचेन्द्रियद्वारमें मोक्ष होता है अर्थात् पांचों इन्द्रियाँ पाया हुआ जोव मोक्ष जा सकता है।
(३) कायमार्गणा के छह भेद हैं, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और सकाय । इनमें से त्रसकाय के जीक मोक्ष जा सकते हैं, अन्यकाय के नहीं।
(४) भवसिद्धिक मार्गणो के दो भेद हैं, भवसिद्धिक ओर अभवसिद्धिक । इनमें से भवसिद्धिक अर्थात् भव्य जीव मोक्ष जा सकते हैं, अभव्य नहीं।
(५) संज्ञीमार्गणा के दो भेद हैं, संज्ञीमार्गणा और
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* मोक्षतत्त्व
(७६)
000000000000
श्रसंज्ञी मार्गणा । इनमें से संज्ञी जोव मोक्ष जा सकते हैं,
श्रसंज्ञी नहीं ।
(६) चारित्रमागंणा के पांच भेद हैं, सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यातचारित्र । इनमें से यथाख्यात चारित्रका लाभ होने पर जीव मोच जाता है, अन्य चारित्र से नहीं ।
(७) सम्यक्त्वमार्गणा के पांच भेद हैं, श्रपशमिक सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक। इनमें से क्षायिक सम्यक्त्व का लाभ होने पर जीव मोक्ष जाता है, अन्य सम्यक्त्व से नहीं ।
(८) अनाहारमार्गणा के दो भेद हैं, अनाहारक और श्राहारक। इनमें से अनाहारक जीव को मोक्ष होता आहारक अर्थात् श्रहार करनेवाले को नहीं ।
(६) ज्ञानमार्गणा के पाँच भेद हैं, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इनमें से केवल ज्ञान होने पर मोक्ष होता है, अन्य ज्ञानसे नहीं ।
(१०) दर्शनमार्गणा के चार भेद हैं; चतुर्दर्शन, चतुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इनमें से केवलदर्शन होनेपर मोक्ष होता है; अन्य दर्शनसे नहीं ।
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(८०)
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* नवतत्त्व *
0040000000000000000000
(११) योग तीन हैं मनोयोग, वचनयोग और काय
योग । इनमें से किसी में मोक्ष नहीं है।
(१२) वेद तीन हैं-त्रोवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । इनमें से किसी वेद में मोक्ष नहीं है ।
Į
(१३) कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया, और लोभ इनमें में किसी में मोक्ष नहीं हैं ।
कष याने संसार उसका श्रय याने लाभ जिससे होता है उसे कषाय कहते हैं।
(१४) लेश्या छ है - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या इनमें भी किसी में मोक्ष नहीं है । लेश्या याने मनके परिणाम |
Goaपमाणे सिद्धाण, जीवदव्वाणि हुंति ताणि ।
लोगस्स संखिज्जे,
भागे इक्को य सव्वे वि ॥ ४७ ॥
" इस गाथा में द्रव्यप्रमाणद्वार और क्षेत्रद्वारका वर्णन है। " द्रव्य प्रमाणद्वारके विचारसे
सिद्धों के
जीवद्रव्य
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* मोक्षतख *
(८१)
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अनन्त हैं । द्रव्य प्रमाण याने सिद्धों के जीव कितने हैं उसका विचार करना |
क्षेत्रद्वारके विचारसे लोकाकाशके श्रसंख्यातवें भाग में एक सिद्ध रहता है, उसी तरह सब सिद्ध भी, लोकाकाश के श्रसंख्यातवें भागमें रहते हैं; परन्तु एक सिद्धसे व्याप्त क्षेत्रकी अपेक्षा, सब सिद्धोंसे व्याप्त क्षेत्रका परिमाण अधिक है ।। ४७ ।।
van R
फुसणा हा कालो.
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पडिवायाभावाओ,
इग सिद्ध पहुच साइयांतो ।
सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥ ४८ ॥
1
"इस गाथा में स्पर्शना, काल और अन्तर, ये तीन द्वार कहे हैं । " ( १ ) क्षेत्र से सिद्ध जीवोंकी स्पर्शना अधिक है एक सिद्धकी अपेक्षासे काल, सादि ( आदि सहित ) अनन्त होता है। सिद्धगतिमें गये हुए जीवका पतन नहीं होता इसलिये अन्तर नहीं है ॥ ४८ ॥
जीव, कर्म से मुक्त होकर जिस श्राकाशक्षेत्र में रहते हैं, उसे सिद्धक्षेत्र कहते हैं । उसका (सिद्धाकाशक्षेत्रका ) प्रमाण पैंतालीस लाख योजन लंबा चौड़ा है, उस क्षेत्र में
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(८२)
*नवतस्व
विद्यमान सिद्धोंके नीचे, ऊपर तथा चारों तरफ आकाशप्रदेश लगे हुये हैं इसलिये क्षेत्रकी अपेक्षासे सिद्धजीवोंकी स्पर्शना अधिक है। - (२) एक सिद्धकी अपेक्षासे काल, सादिअनन्त है, जिस समय जीव मोक्ष गया, वह काल उस जीवके मोक्षका श्रादि है, फिर उस जीवका मोक्षगतिसे पतन नहीं होता इसलिये अनन्त है।
सब सिद्धोंकी अपेक्षासे विचार तो मोक्षकाल, अनादि अनन्त है क्योंकि यह नहीं कहा जासकता कि, अमुक जीव सबसे प्रथम मुक्त हुआ। अर्थात् उससे पहले कोई जीव मुक्त न था।
(३) अन्तर उसे कहते हैं; "यदि सिद्ध अपनी अवस्था से पतित होकर दसरी योनि धारण करने के बाद फिर सिद्धगति प्राप्त करे;" सो हो नहीं सकता क्योंकि सिद्धगति को छोड़कर अन्यगति पानेका कोई निमित्त नहीं है, इसलिये उक्त अन्तर मोक्ष में नहीं है । अथवा सिद्धों में परस्पर क्षेत्र कृत अन्तर नहीं है क्योंकि जहां एक सिद्ध है, वहां बहुत से सिद्ध हैं। कालकृत और क्षेत्रकृत, दोनों अन्तर सिद्धों में नहीं हैं।
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* मोक्षतस्व *
(८३)
00.00
सव्वजियाणमणंते,
भागे ते तेसिं दंसणं नाणं । खइए भावे परिणा,
मिए अ पुण होइ जीवत्तं ॥४६॥ "इस गाथामें भागद्वार और भावद्वार कहते हैं।"
सब सिद्धोंके जीव, संसारी जीवोंका अनन्तवाँ भाग है। उन सिद्धोंका केवलज्ञान और केवलदर्शन,क्षायिक भाव से और जीवितव्य (जीना),पारिणामिक भावसे है ॥ ४६॥
(१) भागद्वार-भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालोंमें यदि कोई ज्ञानीसे सिद्धोंके बारेमें पूछे कि कितने जीव मोक्षमें गये हैं, तो, ज्ञानी यहीं उत्तर देगा कि, "असंख्यात निगोद हैं, प्रत्येक निगोदमें अनन्त जीव हैं, उनमेंसे एक निगोदकर अनन्तवां भाग मोक्ष पा चुका," इसे भागद्वार कहते हैं। । (२) भावद्वार-सिद्धोंके दो भाव होते हैं, क्षायिक और पारिणामिक । क्षायिक के नव भेद हैं और पारियामिकके तीन । केवलज्ञान और केवलदर्शनसे अतिरिक्त सात क्षायिक भाव सिद्धको नहीं होते इसी प्रकार जीवितव्यको छोड़कर अन्य दो पारिणामिक भाव भी नहीं होते।
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* नववव .............m.ncom.m.................
सायिक भाव ये हैं; दान, लाम, मोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र, केवलज्ञान और केवलदर्शन ।
किसी कर्मके क्षयसे होनवाले भावको क्षायिक भाव कहते हैं।
पारिणामिक भाव ये हैं; भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवितव्य ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूप भावप्राण, सिद्ध जीवोंके हैं। पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छवास और श्रायु, ये दस द्रव्यप्राण सिद्धोंको नहीं होते। उपशम क्षय, और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले जीवके स्वभावको पारिणामिक भाव
थोवा नपुंससिद्धा,
थीनरमिद्धा कमेण संखगुणा । इन मुक्खतत्तमेचं, नव तत्ता लेसो भणिया ॥ ५० ॥
"इस गाथामें अल्पबहुत्वद्वार कहा है।" नपुन्सकसिद्ध, कम हैं; उससे स्त्रीसिद्ध, संख्यात गुण अधिक हैं; स्त्रीसिद्धसे पुरुषसिद्ध संख्यात गुण अधिक है।
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* मोक्षतव *
(५)
0000000000000०.००००००००००००००००००००००००००
यह मोदतत्त्व है। इस तरह नव तत्त्व संक्षेपसे कहे गये ।।५।। ___ दो तरह के नपुन्सक होते हैं; जन्मसिद्ध और कृत्रिम। जन्मसिद्ध नपुन्सकोंको मोक्ष नहीं होता, कृत्रिम नपुन्सक एक समयमें उत्कृष्ट दस तक मोक्ष जाते हैं, खियाँ एक समयमें उत्कृष्ट बोस तक मोक्ष जातो हैं और पुरुष एक समयमें उत्कृष्ट एकसौ आठ तक मोक्ष जाते हैं।
जीवाइ नव पयत्थे,
जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । गावेण सद्दहतो,
अयाणमाणेवि सम्मत्तं ॥ ५१ ॥ "इस गाथामें नवतत्त्व जाननेका फल कहते हैं।"
जो जीव, जीवादिनव तत्त्वको जानता है उसे सम्यवत्व प्राप्त होता है। जीवादि पदार्थोंके नहीं जाननेवाले भी यदि अन्तःकरणसे ऐसी श्रद्धा रक्खें कि, "सर्वज्ञ वीतराग, जिनेश्वर भगवान्के कहे हुये नव तत्त्व सच है, अशङ्कनीय हैं," तो समझना चाहिये कि उन्हें भी सम्यक्त्व है ।। ५१ ॥
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(८६)
* नवतस्त्र *
सव्वाइ जिणेसरभा,
सिप्राइं वयणाइ ननहा हुंति। इय बुद्धी जस्स मणे,
सम्मत्त निच्चलं तस्स ॥ ५२॥ "इस गाथामें सम्यक्त्वका स्वरूप कहा गया है।"
जिनेन्द्र भगवानके कहे हुये सभी वचन अन्यथा (झूठ ) नहीं हैं, ऐसी जिसको बुद्धि हो, उसे निश्चल सम्यक्त्व हुआ है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ५२ ।। ___ श्राप्त, वीतराग, सर्वज्ञके उपदिष्ट पदार्थ सच हैं ऐसी दृढ़ श्रद्धाको (आत्माके परिणामविशेषको) सम्यक्त्व कहते हैं।
अंतोमुहुत्तमित्ताप,
___ फासिधे हुज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपुग्गल
परिअट्टो चेव संसारो ॥ ५३॥ "इस गाथामें सम्यक्त्वलाभका फल कहते हैं।" जिनको एक अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्वका स्पर्श
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(८७) Co00000000०००००००००००००००००००००००००००००००
* मोक्षतस्त्र *
हुआ हो, उनका अर्धपुद्गलपरावर्त संसार बाकी रहा है ॥ ५३॥
सिर्फ अन्तमुहर्त तक जिस जीवका परिणाम, सम्यक्त्वरूप होगया हो, उस जीवको अधपुद्गलपरावर्त तक संसारमें भ्रमण करना पड़ेगा, बाद अवश्य मोक्ष मिलेगा।
यह कालपरिमाण उस जीवके लिये कहा गया है जिसने बहुत आशातना की हो, या करनेवाला हो । शुद्ध सम्यक्त्वका आगधन करनेवाला जीव तो, उसी जन्ममें, कोई जीव तीसरे जन्म में, कोई सातवें जन्ममें, कोई पाठवें जन्ममें इस तरह शीघ्र मुक्ति पाता है ।
उस्सप्पिणी अणंता,
____ पुग्गलपरिअट्टो मुणेअन्यो। तेणंता तीद्धा,
अणागयद्धा अणंतगुणा ॥ ५४॥ "इस गाथामें पुद्गलपरावर्तनका स्वरूप कहा है।"
अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी बीत जोनेपर एक 'पुद्गलपरावर्तन होता है, इस तरहके अनन्त
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* नयसव *
'पुद्गलपरावर्तन' पहले हो चुक और अनन्तगुणे श्रागे
होंगे ॥ ५४ ॥
जिए - अजिए - तित्थ ऽतित्था, गिहि- अन्न - सलिंग थी- नर-नपुंसा |
पत्तेय - सयंबुद्धा,
बुद्धबोहिक णिक्काय ॥ ५५ ॥
"इस गाथामें सिद्धों के पंदरह भेद कहे गये हैं ।" (१) तीर्थङ्करसिद्ध, (२) अतीर्थङ्करसिद्ध, (३) तीर्थसिद्ध, (४) अतीर्थसिद्ध, (५) गृहस्थलिङ्गसिद्ध, (६) अन्यलिङ्गसिद्ध, (७) स्वलिंगसिद्ध, (८) स्त्रीसिद्ध, (६) पुरुष - सिद्ध, (१०) नपुन्सकसिद्ध, (११) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (१२) स्वयंबुद्धसिद्ध, (१३) बुद्धबोधितसिद्ध, (१४) एकसिद्ध और (१५) अनेकसिद्ध ये पंदरह सिद्ध के भेद हैं ॥ ५५ ॥
(१) तीर्थङ्कर होकर जिन्होंने मुक्ति पाई, वे जिनतीर्थङ्कर सिद्ध । ऋषभ, महावीर आदि ।
( २ ) सामान्य केवली, अजिन - तीर्थङ्करसिद्ध कहलाते हैं, जैसे पुण्डरीक आदि ।
(३) चतुर्विध संघकी स्थापना करने के बाद जिन्होंने मुक्ति पाई वे 'तीर्थसिद्ध,' जैसे गौतम आदि गणधर ।
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* मोचतत्त्व
(८६)
(४) चतुर्विध संघकी स्थापना करने के पहले जिन्होंने मुक्ति पाई वे 'अतीर्थसिद्ध, जैसे मरुदेवी आदि।
(५) गृहस्थ के वेष में जिन्होंने मुक्ति पाई वे 'गृहस्थलिंगसिद्ध, जैसे मरुदेवी माता आदि।।
(६) सन्यासी श्रादि अन्यवेषधारी साधुओं ने मुक्ति पाई वे 'अन्यलिंगसिद्ध, जैसे 'वल्कलचीरी' आदि। ___ (७) रजोहरण आदि अपने वेष में रहकर जिन्होंने मुक्ति पाई वे 'स्वलिंगसिद्ध, जैसे जैनवेषधारी साधु ।
(८) स्त्रीलिंगसिद्ध, जैसे चन्दनवाला आदि । (8) 'पुरुषलिंगसिद्ध, जैसे गौतम आदि। (१०) 'नपुन्सकलिंगसिद्ध, जैसे भीष्म आदि ।
(११) किसी अनित्य पदार्थ को देख कर विचार करते करते जिन्हें बोध हुआ बाद कंवलज्ञान प्राप्त हुश्रा और सिद्ध हुए वे 'प्रत्येकबुद्ध, जैसे करकण्डू राजा श्रादि। ___ करकण्डू राजा को सन्ध्या के समय आकाश में गन्धर्व नगरों का (बादलों का नगर) बनना और मिटना देखकर बैराग्य हो गया था कि संसार के सब पदार्थ इसी तरह नाशवान है।
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*नवतख
(१२) 'स्वयंबुद्धसिद्ध';-बिना उपदेशके, पूर्वजन्मके संस्कार उजुद्ध होने से जिन्हें ज्ञान हुआ और सिद्ध हुए वे । जसे कपिल आदि।
कपिल को साधुओं के पात्र देख कर ज्ञान हुआ था कि मैं ने भो ऐसे पात्र कभी देखे हैं, ऐसा सोचते सोचते पूर्व भव को स्मरण हो गया और सिद्ध हुए।
(१३) गुरुके उपदेश से ज्ञानी होकर जो सिद्ध हुये, वे, 'बुद्धबोधित सिद्ध'। __(१४) एक समय में एक ही मोक्ष जानेवाले एकसिद्ध, जैसे महावीर स्वामी श्रादि ।
(१५) एक समय में अनेकमुक्त होने वाले 'अनेकसिद्ध कहलाते हैं, जैसे ऋषभदेव आदि ।
"सिद्ध जीवों के उदाहरण चार गाथाओं के द्वारा कहे जाते हैं। जिगसिद्धा अरिहंता,
अजिणसिद्धा य पुंडरित्र पमुहा गणहारि तित्थसिद्धा,
अतित्थसिद्धा य मरुदेवी ॥५६॥ ऋषभ आदि तीर्थङ्कर, जिनसिद्ध' कहलाते हैं,
गवाह
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* मोचतत्व और पुण्डरीक वगैरह 'अजिनसिद्ध' । गणधर 'तीर्थसिद्ध' कहलाते हैं और मरुदेवो 'अतीर्थसिद्ध' ॥५६।। गिहिलिंगसिद्ध भरहो,
वक्कलचीरी य अन्नलिंमम्मि । साहू सलिंगसिद्धा,
थीसिद्धा चंदणापमुहा ॥५७॥ भरत चक्रवर्ती 'गृहस्थलिंग सिद्ध'; वल्कलचीले अन्यलिंगसिद्ध'; जैनसाधु 'स्वलिंगसिद्ध', चन्दनवाला भादि 'स्त्रीसिद्ध' ॥५७॥
पुसिद्धा गोयमाई
गांगेयपमुह नपुसया सिद्धा। पत्तेय-सयंबुद्धा,
भणिया करकंडु-कविलाई ॥५॥ गौतम आदि 'पुरुषलिंगसिद्ध' । भीष्म आदि 'नपुन्सकलिंगसिद्ध' । करकंड राजा 'प्रत्येक बुद्धसिद्ध कपिल आदि 'स्वयंबुद्ध' ॥१५॥ तह बुद्ध बोहि गुरु बो
हिया य इगसमयः एगसिद्धा य ।
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(६२)
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* नवतस्य *
400000
इगसमये विगा, सिद्धा ते रोगसिद्धा य ॥ ५६॥
गुरुके उपदेश से ज्ञानी होकर जो मुक्त हुए वे, 'बुद्धबोधित सिद्ध' | महावीर स्वामी की तरह, एक समय में एक ही मोक्ष गया, वह ' एक सिद्ध' । ऋषभदेव भगवान् के सदृश, एक समय में अनेक मुक्त हुये, वे 'अनेकसिद्ध' ||२६||
अब संसार के जीवों में से कितने जीव मोक्ष में गये हैं, उसको बतलाते हैं।
जाइ होई पुच्छा, जिलाए मग्गंमि उत्तरं तइया ।
इक्कस्स निग्गोयस्स,
अणन्त भागां सिद्धगो ॥६०॥
अर्थ- जब जब भगवान् से यह प्रश्न किया गया कि श्रम संसार में से कितने जीव मोक्ष में गये हैं, तब यही उत्तर मिला कि एक निगोद का अनन्त भाग मोक्ष में गया है। जब कि ऐसे असंख्य निगोद है । साधारण वनस्पति कायको निगोद कहते हैं ।
*समाप्त*
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मुद्रक-पं० भूपसिंह शर्मा, · सरस्वती प्रेस, बेलनगंज-भागरा।
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