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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * पुण्यतत्व * Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२३) Da 000000000000 जैसे टेढ़े चलते हुए बैल को नथनी डाल कर सीधे चलाने में आता है वैसे ही विग्रहमति से दूसरी गति में जाने वाला जीव जब शरीर छोड़ कर समश्रेणि से जाने लगता है तब श्रानुपूर्वी कर्म उस जीवको जबरदस्ती से, जहां पैदा होना हो, वहाँ पहुँचा देता है। मनुष्य गति कर्म और मनुष्यानुपूर्वीकर्म दोनों को 'मनुष्यद्विक' संज्ञा है । +60 ( ५ ) जिस कर्म से जोत्र को देवगति मिले, उसे 'देवगति' कहते हैं । ( ६ ) जिस कर्म से जीव को देवता की श्रानुपूर्वी प्राप्त हो, उसे देवानुपूर्वी कहते हैं । (७) जिस कर्म से जीवको पांचों इन्द्रियां मिलें, उसे 'पञ्च ेन्द्रिय जातिकर्म' कहते हैं । For Private And Personal ( ८ ) जिस कर्म से जीव को श्रदारिक शरीर मिले उमे 'औदारिककर्म' कहते हैं उदार अर्थात् बड़े बड़े अथवा तीर्थंकरादि उत्तम पुरुषों की अपेक्षा उदार -प्रधान पुद्गलों से जो शरीर बनता है उसे 'दारिक' कहते हैं । मनुष्य पशु पक्षी आदि का शरीर श्रदारिक कहलाता है । (६) जिस कर्म से वैक्रिय शरीर मिले उसे 'वैक्रियकर्म' कहते हैं। अनेक प्रकार की क्रियाओं से बना हुआ शरोर, 'वैक्रिय' कहलाता है । उसके दो भेद हैं; औपपातिक और
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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