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* पुण्यतत्व *
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(२३)
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जैसे टेढ़े चलते हुए बैल को नथनी डाल कर सीधे चलाने में आता है वैसे ही विग्रहमति से दूसरी गति में जाने वाला जीव जब शरीर छोड़ कर समश्रेणि से जाने लगता है तब श्रानुपूर्वी कर्म उस जीवको जबरदस्ती से, जहां पैदा होना हो, वहाँ पहुँचा देता है। मनुष्य गति कर्म और मनुष्यानुपूर्वीकर्म दोनों को 'मनुष्यद्विक' संज्ञा है ।
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( ५ ) जिस कर्म से जोत्र को देवगति मिले, उसे 'देवगति' कहते हैं ।
( ६ ) जिस कर्म से जीव को देवता की श्रानुपूर्वी प्राप्त हो, उसे देवानुपूर्वी कहते हैं ।
(७) जिस कर्म से जीवको पांचों इन्द्रियां मिलें, उसे 'पञ्च ेन्द्रिय जातिकर्म' कहते हैं ।
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( ८ ) जिस कर्म से जीव को श्रदारिक शरीर मिले उमे 'औदारिककर्म' कहते हैं उदार अर्थात् बड़े बड़े अथवा तीर्थंकरादि उत्तम पुरुषों की अपेक्षा उदार -प्रधान पुद्गलों से जो शरीर बनता है उसे 'दारिक' कहते हैं । मनुष्य पशु पक्षी आदि का शरीर श्रदारिक कहलाता है ।
(६) जिस कर्म से वैक्रिय शरीर मिले उसे 'वैक्रियकर्म' कहते हैं। अनेक प्रकार की क्रियाओं से बना हुआ शरोर, 'वैक्रिय' कहलाता है । उसके दो भेद हैं; औपपातिक और