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(८६)
* नवतस्त्र *
सव्वाइ जिणेसरभा,
सिप्राइं वयणाइ ननहा हुंति। इय बुद्धी जस्स मणे,
सम्मत्त निच्चलं तस्स ॥ ५२॥ "इस गाथामें सम्यक्त्वका स्वरूप कहा गया है।"
जिनेन्द्र भगवानके कहे हुये सभी वचन अन्यथा (झूठ ) नहीं हैं, ऐसी जिसको बुद्धि हो, उसे निश्चल सम्यक्त्व हुआ है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ५२ ।। ___ श्राप्त, वीतराग, सर्वज्ञके उपदिष्ट पदार्थ सच हैं ऐसी दृढ़ श्रद्धाको (आत्माके परिणामविशेषको) सम्यक्त्व कहते हैं।
अंतोमुहुत्तमित्ताप,
___ फासिधे हुज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपुग्गल
परिअट्टो चेव संसारो ॥ ५३॥ "इस गाथामें सम्यक्त्वलाभका फल कहते हैं।" जिनको एक अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्वका स्पर्श
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