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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (३२) आवरण, 'श्रुतज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है । (३) अतीन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्य को जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, उसका आवरण, 'अवधिज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है । * नवतरव * Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४ ) संज्ञी पंचेन्द्रियके मन की बात जिस ज्ञानसे मालूम होती है, उसे मनः पर्यवज्ञान कहते हैं, उसका आवरण, 'मनः पर्यवज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है । ( ५ ) सारे संसारका पूरा ज्ञान जिससे होता है उसे केवलज्ञान कहते हैं, उसका श्रावरण, 'केवलज्ञानावरणीय ' पापकर्म कहलाता है | ( ६ ) दान से लाभ होता है, उसे जानता हो, पास में धन हो, सुपत्र भी मिल जावे, लेकिन दान न कर सके, इसका कारण, 'दानन्तिराय' कर्म है । (७) दान देनेवाला उदार है, उसके पाप दान की चीजें भी मौजूद हैं, लेनेवाला भो हुशियार हैं, वो भी मोगो हुई खोज न मिले, इसका कारण, 'लाभान्तराय' पापक्रम है । (८) भोग्य चीजें मौजूद हैं, भोगने की शक्ति भी है लेकिन नहीं भोग सके, उसका कारण 'भोगान्तराय' पापकर्म है । For Private And Personal
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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