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* नवतत्त्व * 00000000000000000000000000०.००००० पदार्थ अनित्य है, ऐसा चिन्तन करना 'अनित्यभावना कहाती है।
(२) सम्राट, चक्रवर्ती, इन्द्र, तीर्थङ्कर श्रादि महापुरुषों को भी मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता, फिर साधारण जीवों की तो बात ही क्या ? मृत्यु के मुख में पड़े हुए जीवका धन, कुटुम्ब श्रादि कोई शरण नहीं है, ऐसा हमेशा विचार करना तथा सिवा धर्मके किसीको शरण न मानना, 'अशरणभावना' कहाती है ।
(३) चौरासी लाख योनियों में जीव भ्रमण करता है। किसी योनिमें माता; स्त्री बन जाती है; स्त्री माता बन जाती है; पिता, पुत्र बन जाता है; पुत्र, पिता बन जाता है; संसार की इस तरहकी अव्यवस्था का हमेशा विचार करना, 'संसारभावना' कहाती है।
(४) यह जीव संसार में अकेला श्राया है, अकेला ही जायगा और अकेला ही सुख या दुःख भोगेगा, कोई साथी होनेवाला नहीं, ऐसा हमेशा विचार करना, 'एकत्वभावना' कहाती है।
(५) आत्मा, ज्ञानस्वरूप है; शरीर जड़ है; शरीर श्रात्मा नहीं, न आत्मा शरीर है, शरीर, इन्द्रिय, मन, धन, कुटुम्ब आदि, आत्मा से जुदे हैं, ऐसा हमेशा विचार करना, 'अन्यलमावना' कहाती है।
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