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* संवरतस्व *
(५५)
चिकित्सा करावे और कर्मफल मिल रहा है ऐसा विचार करे किन्तु वेदनाप्रयुक्त ध्यान न करे ।
(१७) तृणस्पर्श - रोगपीड़ित साधु, घास श्रादिके विस्तर के तृणके गड़ने से दुखी न हो किन्तु शान्तचित्तसे वेदना सहन करे ।
(१८) मल - पसीने से शरीरमें मल बढ़ जाय, दुर्गन्ध आने लगे, तौभी स्नान करनेकी इच्छा न करे ।
(१६) सत्कार - लोकसमुदाय यो राजा महाराजाओं की स्तुति, वन्दना या आदर सत्कार से साधु अपना उत्कर्ष न समझे । और न आदर-सत्कारके न पानेसे दुखी हो ।
( २० ) प्रज्ञा - बड़ी विद्वत्ता होनेपर भी साधु घमण्ड न करे तथा अल्प ज्ञान होनेपर भी शोक न करे ।
(२१) अज्ञान -- ज्ञानधरणीय कर्म के उदयसे पढ़ने में मेहनत करने पर भी विद्या हांसिल नहीं होती । साधु कभी ऐसा दुर्ध्यान न करे कि, "मैंने गृहस्थाश्रम छोड़ा, साधु बना हूं, तप जप करता हूं, पढ़ने में मेहनत करता हूं तो भी मुझे विद्या प्राप्त नहीं होती इसलिए मुझे धिकार है कि साधु होकर भी मैं मूर्ख हूँ" किन्तु अपने किये कर्मका फल सोचकर सन्तोष करे ।
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