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(५४)
*नवतत्त्व *
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लेवे किन्तु खुद भिक्षा माँगकर लावे । मांगने में कोई अपमान करे तो बुरा न माने, न भिक्षा मांगने में लज्जा करे।
अलाभ रोग तणफासा,
मल सक्कार परीसहा । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं,
इश बाविस परिसहा ॥२८॥ अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और सम्यक्त्व ये बाईस परीसह हैं ।। २८ ॥
(१५) लाभान्तराय कर्मका जब उदय होता है तो मांगनेपर भी वस्तु नहीं मिलती चाहे वह चीज दाताके घरमें अधिक हो। साधु लोग निर्दोष आहार भादिकी अप्राप्तिसे उद्वेग करें कि यह समझकर कि अन्तराय कर्मका उदय है, सचित्त बने रहें । इसे. 'श्रलाभपरिसह कहते हैं।
(१६) रोग-ज्वर, अतिसार आदि भयङ्कर रोग होनेपर जिनकल्पी साधु चिकित्सा करानेकी इच्छा भी न करे किन्तु अपने कृतकका परिपाक समझकर वेदनाको सहन करे । स्थविस्कल्पी साधु आगमोक्त विधिसे निरवद्य
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