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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * जीवतच्च * (१३) *1000090 ( ५ ) चतुरिन्द्रिय को अपेक्षा असंज्ञो पञ्चन्द्रिय को श्रोत्रेन्द्रिय-यह एक प्राण अधिक है I 1 ( ६ ) असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा, संज्ञी पंचेन्द्रिय को मनोबल - यह एक प्राण अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद हैं- मनुष्य और तिर्यञ्च इनको सम्मूच्छिम कहते हैं समूच्छिम मनुष्य की वचन बल नहीं होता इस लिये उसको आठ प्राण समझना चाहिये । वह यदि श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति को पूर्ण किये बिना ही मर जाय तो सात प्राण समझना । नाचे लिखे हुये श्लोक में भो दस प्राणों का वर्णन हैपंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ताः, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा || १ || पाँच इन्द्रियां, तीन बल मनोबल, वचनबल और कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयु, ये दस प्राण, भगवान ने कहे हैं; जीव को इन प्राणों से जुदा करना, हिंसा कहलाती है। जोव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र श्रादि गुणों को "भावप्राण" कहते हैं । || जीव तच समाप्त ॥ For Private And Personal
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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