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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir *नवतत्त्व * (७२) ... (६) नामकर्म का स्वभाव, चित्रकार जैसा है। यह कर्म, श्रात्माके 'अरुपित्व' धर्मको रोकता है। जैसे चितेरा, भले-बुरे अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म, आत्माको भले बुरे नाना प्रकारके देव-मनुष्य नारक-तिर्यञ्च बना देता है। (७) कुम्भार जैसा गोत्र कर्म है । यह कर्म आत्मा के 'गुरुलघु' गुण को रोकता है। ___ कुम्भार घी रखने के घड़े बनाता है और मद्य रखने के भी। धोका घड़ा अच्छा समझा जाता है और मद्यका बुरो । इसी तरह गोत्र कर्मके उदय से जीव ऊंच-नीच कुलमें जन्म लेता है। (८) अन्तराय कर्मका स्वभाव भण्डारी जैसा है। यह कर्म जीवके वीर्यगुण की तथा दान आदि लब्धियोंको रोकता है । जैसे मालिक इच्छा होते हुये भी, दुष्ट भण्डारी के कारण दान आदि नहीं कर सकता, इसी प्रकार अन्तराय कर्म के उदय से जीव दोन श्रादि नहीं कर सकता, न अपनी शक्ति का विकास कर सकता है। - - - For Private And Personal
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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