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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * जीवतत्व* ०००00.00000000000000000000000000000000 जलकाय, तेजःकाय, वायुकाय वनस्पतिकाय और त्रसका. यरूप से छः तरह का ॥३॥ सूर्य बादलों से चाहे जितना घिर जाय तो भी उसका प्रकाश कुछ न कुछ जरूर बना रहता है इसी तरह कर्मों के गाढ़ प्रावरण से ढके हुए जोव के ज्ञान का अनन्तवां भाग खुला रहता है; मतलब यह है कि पूर्ण कर्मबद्ध दशो में भो जीव में कुछ न कुछ ज्ञान जरूर बना रहता है; यद ऐसा न हो, तो जीव और जड़ में कोई फर्क ही न रहेगा। सर्दी गरमो आदि से बचने के लिये जो जीव चल फिर सकें वे 'स' कहलाते हैं, जैसे:-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि । चल फिर न सकें वे 'स्थावर' कहलाते हैं, जैसे:एकेन्द्रिय जीव, वृक्ष, लता, पृथ्वीकोय, जलकाय आदि। जिस कम के उदय से पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा होतो है उस कर्म को 'स्त्रीवेद' कहते है। जिस कर्म के उदय से स्त्रो के साथ सम्भोग करने की इच्छा होतो है उस कर्म को 'पुरुषवेद' कहते हैं। जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ सम्भोग करने की इच्छा होती है उस कर्म को 'नपुन्सकवेद' कहते हैं। . देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक, ये चार गतियाँ हैं। अनादिकाल से इन गतियों में जीव घूम रहा है, और जब तक मुक्ति नहीं मिलती तब तक बराबर घूमता रहेगा। For Private And Personal
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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