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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir *निर्जरातत्व (६५) 00000000000000000०००००००००००००००००००००० पापशुद्धिके लिये गुरु जो तप बतलायें, उसे करे, यह 'प्रायश्चित्त' कहाता है। ___ ( २ ) देव, गुरु, माता, पिता भादि पूज्योंका आदर-मत्कार करना उन्हें अपने शुद्ध भाचरणसे मन्तुष्ट रखना; इसे 'विनय' कहते हैं। (३) आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी, दीन आदिको अन्न, जल, बख, ठहरनेकेलिये जगह भादि देना; इसे "वैयाप्रत्य" कहते हैं। __ (४ ) पड़ना, पढ़ाना, सन्देह होनेपर गुरुसे पूछना, पढ़े हुये ग्रन्थको याद रखना, धर्मकी कथा कहना, धर्मका उपदेश देना; यह सब 'स्वाध्याय' कहलाता है। (५) चित्तको एकाग्रताको 'ध्यान' कहते हैं, उसके चार भेद हैं;-पात, रौद्र, धर्म और शुक्ल । आर्त और रौद्र ध्यानका त्याग करना चाहिये । धर्म और शुक्ल ध्यानका सेवन करना चाहिये। श्रात-मित्र, माता, पिता आदिकी मृत्यु होनेपर शोक करना; कोड़ी, रोगी आदिको देखकर घृणा करना; शरीरमें कोई रोग होनेपर उसीकी चिन्ता करना; इस जन्ममें किये हुये दान मादि तपका दूसरे जन्ममें अच्छे फल पानेकी चिन्ता करना; ये सब 'पार्तध्यान' कहलाते है। For Private And Personal
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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