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*निर्जरातत्व
(६५)
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पापशुद्धिके लिये गुरु जो तप बतलायें, उसे करे, यह 'प्रायश्चित्त' कहाता है। ___ ( २ ) देव, गुरु, माता, पिता भादि पूज्योंका
आदर-मत्कार करना उन्हें अपने शुद्ध भाचरणसे मन्तुष्ट रखना; इसे 'विनय' कहते हैं।
(३) आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी, दीन आदिको अन्न, जल, बख, ठहरनेकेलिये जगह भादि देना; इसे "वैयाप्रत्य" कहते हैं। __ (४ ) पड़ना, पढ़ाना, सन्देह होनेपर गुरुसे पूछना, पढ़े हुये ग्रन्थको याद रखना, धर्मकी कथा कहना, धर्मका उपदेश देना; यह सब 'स्वाध्याय' कहलाता है।
(५) चित्तको एकाग्रताको 'ध्यान' कहते हैं, उसके चार भेद हैं;-पात, रौद्र, धर्म और शुक्ल ।
आर्त और रौद्र ध्यानका त्याग करना चाहिये । धर्म और शुक्ल ध्यानका सेवन करना चाहिये।
श्रात-मित्र, माता, पिता आदिकी मृत्यु होनेपर शोक करना; कोड़ी, रोगी आदिको देखकर घृणा करना; शरीरमें कोई रोग होनेपर उसीकी चिन्ता करना; इस जन्ममें किये हुये दान मादि तपका दूसरे जन्ममें अच्छे फल पानेकी चिन्ता करना; ये सब 'पार्तध्यान' कहलाते है।
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