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(६४)
*नवतत्व*
त्याग, 'रसत्याग' कहलाता है; जैसे नीवी, श्राम्बिल श्रोदि तप।
(५) साधु लोग, लोच करते हैं अर्थात् सिरके बाल उखाड़ते हैं, कायोत्सर्ग करते हैं और भी अनेक प्रकारसे शरीरको कष्ट पहुँचाते हैं, उसे सहते हैं, यह सब 'कायक्लेश' तप कहलाता है।
(६) इन्द्रियोंको वशमें रखना; क्रोध, लोभ आदि न करना; मन, वचन, कायासे किसी जीवको तकलीफ न होने देना; उपाश्रय आदि एकान्त जगहमें रहना: यह 'संलीनता' तप कहलाता है।
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पायच्छित्तं विणो,
यावच्चं तहेव सज्झायो। माणं उस्सगो वि श्रा
अभितरो तवो होइ ॥३५॥ "इस गाथा में छह प्रकारका अभ्यन्तर तप कहा है।"
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग, ये छह अभ्यन्तर तप हैं ।। ३५ ।।
(१) जो पाप किये हों, उन्हें गुरुके पास कहे,
कारक
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