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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * नवतत्त्व * रौद्र-द्वेषसे किसो जीवको मारने या उसे कष्ट पहुँचानेकी चिन्ता करना; छल कपट करके दूसरेका धन लेनेकी चिन्ता करना; हिस्सेदार कुटुम्बी मर जाँय तो मैं अकेला ही मालिक बन बैठूगा ऐसी चिन्ता करना; ये सब 'शैद्रध्यान' कहाते हैं। ____धर्म-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वैराग्य आदिकी भावना करना; सर्वज्ञ वीतराग के उपदेश रूप सिद्धांत में सन्देह न करके उसपर पूरी श्रद्धा रखना; राग, द्वेष, क्रोध, काम, लाभ, मोह आदि, इस लोक तथा परलोक में भी दुःख देने वाले हैं ऐसा चिन्तन करना; सुख दु:ख प्राप्त होने पर हर्ष और शोक न कर पूर्वकर्म का फल मिल रहा है, ऐसा समझना; जिनेन्द्र भगवान के कहे हुये छह द्रव्यों का विचार करना; यह सब 'धर्मध्यान' कहातो है। शुक्ल-शुक्ल ध्यानके चार भेद हैं: पृथक्त्ववितर्क सविचार, एकत्ववितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति और व्युपरतक्रिया अनिवृत्ति । (१) द्रव्य, गुण और पर्याय के जुदाई को पृथक्त्व कहते हैं; अपनी आत्माके शुद्ध स्वरूप का अनुभवरूप भावश्रुत, वितर्क कहलाता है और मन, वचन, और काय, इन तीन योगों में से एक योग ग्रहण कर दूसरेमें संक्रमण करना, विचार कहलाता है। For Private And Personal
SR No.020500
Book TitleNavtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1945
Total Pages107
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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