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*नवतस्त्र *
.(६२)........... * नवतत्व *... कहते हैं । यह चारित्र दसवें गुणस्थानक में पहुँचे हुये साधु को होता है।
तत्तो अ अहक्खायं,
खायं सम्बंमि जीवलोगंमि । जं चरिऊण सुविहिवा;
वच्चंतिऽयरामरं ठाणं ॥३३॥ सब लोक में यथाख्यात-चारित्र प्रसिद्ध है, जिसका सेवन करके साधु लोग मोक्ष पाते हैं ॥३३॥
(५) क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के सर्वथा क्षय होने पर या उपशम होने पर साधु का जो चारित्र है, उसे "याच्यातचारित्र" कहते हैं ।। ___ इस जमाने में आदि के दो चारित्र हैं, अन्त के तीन म्युच्छिन्न हुये।
संवरतत्त्व समाप्त।
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