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* भवतस्स *
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(२५) सिर्फ शरीरव्यापारसे जो क्रिया लगती है उसे
'ऐर्यापथिक' कहते हैं ।
यह क्रिया श्रप्रमत्त साधु तथा सयोगो केवलीको भी लगती है ।
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संवरतत्त्व |
समिई गुत्ति परीसह,
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जइधम्मो भावणा चरिताणि ।
पण ति दुवीस दस बार, पंच भेएहिं सगवन्ना ॥२५॥
"इस गाथा में संवरके सत्तावन भेद गिनाये हैं" पाँच समिति, तीन गुप्ति, बाईस परीसह, दस प्रकार, का यतिधर्म, बारह भावना और पाँच प्रकारका चारित्र, ये संवरके सत्तावन भेद हैं ॥ २८५ ॥
संवरके दो भेद हैं; द्रव्यसंवर और भावसंवर । श्रावे हुये नवीन कर्मको रोकनेवाले श्रात्मा के परिणामको 'भावसंवर' कहते हैं और कर्मपुद्गलकी रुकावटको 'द्रव्यसंवर' कहते हैं ।
श्रतधर्म के अनुसार जो चेष्टा विशेष, उसे 'समिति' कहते हैं ।
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