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नवतव*
(१२) रागादिकलुषित चित्तसे स्त्री आदिके अंगका स्पर्श करनेसे 'स्पृष्टिकी' क्रिया लगती है।
(१३) जीवादि पदार्थोंको लेकर कर्मबन्धनसे जो क्रिया लगती है उसे 'प्रातीत्यकी' कहते हैं ।
(१४) अपना वैभव देखनेके लिये आये हुये लोगों की वैभवविषयक प्रशंसा सुनकर खुश होनेसे तथा घी तेल प्रादिके खुले बर्तनों में त्रस जीवोंके गिरनेसे जो क्रिया लगती है उसे 'सामन्तोपनिपातिकी' कहते हैं।
(१५) राजा श्रादिके हुक्मसे यन्त्र, हथियार श्रादिके बनाने तथा खींचने श्रादिसे जो क्रिया लगती है उसे 'नैशस्त्रिकी' कहते हैं।
(१६) हिरन, खरगोश आदि जीवोंको शिकारी कुत्तों से मरवाने या खुद मारनेसे जो क्रिया लगती है उसे 'स्वहस्तिकी' कहते हैं।
प्राणवणि विश्रारणिया,
अणभोगा अणवकंखपञ्चइया । अन्ना पत्रोग समुदाण,
पिज दोसेरिअावहिबा ॥२४॥
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