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(२८)
* नवरात्र *
( २८ ) जिस कर्म से जीवके शरीर के अवयव, नियतस्थान में व्यवस्थित हों उसे 'निर्माण' नामकर्म कहते हैं ।
जैसे कारीगर, मूर्ति में यथायोग्य स्थानों में अवयरों को बनाता है वैसे ही 'निर्माण' नामकर्म भी अवयवों को व्यवस्थित करता है ।
।
(२६-३८) त्रसदशकका विचार आगे की गाथा में कहा जायगा ।
( ३६-४१ ) जिन कर्मों से जीव देव, मनुष्य और तिर्यश्च की योनि में जीता है, उनको क्रम से 'देवायु', 'मनुष्यायु' और 'तिर्यञ्चायु' नामकर्म कहते हैं ।
(४२) जिस कर्म से जीव, चौतीस अतिशयों से युक्त होकर त्रिभुवनका पूजनीय होता है, उसे 'तोर्थङ्कर' नाम कर्म कहते हैं ।
तस बायर पज्जतं, पत्ते सुस्सर ग्राइज जसं,
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थिरं सुभं च सुभगं च ।
तसाइदसगं इमं होइ ॥ १७ ॥
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" इस गाथा में सदशकका वर्णन है"
( १ ) जिस कर्म से जोव को 'नस' शरीर मिजे उठे