Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 83
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * निर्जरातत्त्व * (७१) (३) वेदनीय कर्मका स्वभाव, शहद लगी हुई तलवारकी धारके सदृश है। यह कर्म आत्माके 'अव्यायाध' गुणको रोक देता है । तलवारको धारमें लगे हुये शहद को चाटने के समान, सातावेदनीय कर्मका विपाक है। खड्गधारा से जोभ के कटने पर, अनुभव में आती हुई पीड़ाके समान, असाताबेदनीय कर्म का विपाक है। सांसारिक सुख, दुःखसे मिला हुआ है इसलिए निश्चयदृष्टिसे, सिवा आत्मसुखके, पुद्गलनिमित्तक सुख, दुःखरूप ही समझा जाता है। (४) मयके नशे के समान, मोहनीय कर्मका स्वभाव है । यह आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र गुणको ढंक देता है। जैसे मद्यके नशेमें चूर मनुष्य,अपना हित-अहित नहीं समझ सकता, इसी प्रकार मोहनीय कर्मके उदय से आत्मा को धर्म अधर्म का भान नहीं रहता। (५) आयुकर्मका स्वभाव, कारागृह के समान है। यह कर्म, आत्माके 'अविनाशित्व' धर्मको रोक देता है। जिस प्रकार जेलमें पड़ा हुआ मनुष्य, उससे निकलना चाहता है पर सजा पूर्ण हुये पिनो नहीं निकल सकता, उसी तरह नरकादि योनि में पड़ा हुआ जीव, श्रायु पूर्ण कि ये बिना, उन योनियों से नहीं छूट सकता। For Private And Personal

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