Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 82
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * नवतत्त्व * 0000000000000000000000000000000000 000.00 परिमाणका होता है । उसी तरह कोई कर्मदल, परिमाणमें कम होता है और कोई ज्यादा, अनेक प्रकारके परिमाण होते हैं, इन परिमाणोंको 'प्रदेशबन्ध' कहते हैं। "आठ कर्मों का प्रत्येक का-स्वभाव, दृष्टान्तोंके द्वारा" दिखलाते हैं। पड-पडिहारऽसि-मज्ज, हड-चित्त-कुलाल-भंडगारीणं । जह एएसि भावा, कम्माण वि जाण तह भावा ॥३८॥ पट, प्रतिहारी, असि, मद्य, कारागृह,चित्रकार, कुलाल और भण्डारी इनके स्वभाव के सदृश कर्मों का स्वभाव है ॥३८॥ (१) आँख पर बाँध हुई पट्टी के सदृश, ज्ञानावरणीय कर्मका स्वभाव है । वह आत्माके अनन्त ज्ञान को रोक देता है। (२) द्वारपाल के समान, दर्शनावरणीय कर्म का स्वभाव है । जिस प्रकार राजा को देखने की चाहनेवाले को द्वारपाल रोकता है, उसी तरह आत्मा के दर्शन गुण को दर्शनावरणीय कर्म रोक देता है। For Private And Personal

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