Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 94
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (८२) *नवतस्व विद्यमान सिद्धोंके नीचे, ऊपर तथा चारों तरफ आकाशप्रदेश लगे हुये हैं इसलिये क्षेत्रकी अपेक्षासे सिद्धजीवोंकी स्पर्शना अधिक है। - (२) एक सिद्धकी अपेक्षासे काल, सादिअनन्त है, जिस समय जीव मोक्ष गया, वह काल उस जीवके मोक्षका श्रादि है, फिर उस जीवका मोक्षगतिसे पतन नहीं होता इसलिये अनन्त है। सब सिद्धोंकी अपेक्षासे विचार तो मोक्षकाल, अनादि अनन्त है क्योंकि यह नहीं कहा जासकता कि, अमुक जीव सबसे प्रथम मुक्त हुआ। अर्थात् उससे पहले कोई जीव मुक्त न था। (३) अन्तर उसे कहते हैं; "यदि सिद्ध अपनी अवस्था से पतित होकर दसरी योनि धारण करने के बाद फिर सिद्धगति प्राप्त करे;" सो हो नहीं सकता क्योंकि सिद्धगति को छोड़कर अन्यगति पानेका कोई निमित्त नहीं है, इसलिये उक्त अन्तर मोक्ष में नहीं है । अथवा सिद्धों में परस्पर क्षेत्र कृत अन्तर नहीं है क्योंकि जहां एक सिद्ध है, वहां बहुत से सिद्ध हैं। कालकृत और क्षेत्रकृत, दोनों अन्तर सिद्धों में नहीं हैं। For Private And Personal

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