Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * संवरतत्र * (५६) (६) यह शरीर, खून, मांस, हड्डी, मल, मूत्र आदिसे भरा है; यह शरीर किसी उपाय से पवित्र होनेवाला नहीं है, ऐसा हमेशा विचार करना, 'अशुचित्वभावना' कहाती है। (७) संसार के जीव क्रोध, मान, माया, लोम, मिथ्याज्ञान आदि से नये नये कर्म बांधते हैं, ऐसा हमेशा विचार करना, 'श्रावभावना' कहाती है। ___ (८) कर्मबन्ध के कारणभूत, मिथ्याज्ञान आदि को रोकने के उपाय सम्यज्ञान आदि है, ऐसा विचार करना, 'संवरभावना' कहाती है। __(8) निर्जराभावना दो तरह की है; सकामा और अकामा । समझकर तपके जरिये कर्मका क्षय करना सकामा । बिना समझे भूख प्यास आदि दुखों के वेग को सहन करनेसे जो कर्मक्षय होता है, उसे अकामा कहते हैं। ऐसे चिन्तनको 'निर्जराभावना' कहते हैं। लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एआश्रो भावणाओ, भावेश्रवा पयत्तेणं ॥ ३१ ॥ For Private And Personal

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