Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir *संवरतत्त्व * (५७) 0000000000000000000000000000000000000000 सच बोलना, 'सत्य' कहाता है। किसो जीव को तकलीफ न हो ऐसा बर्ताव करना, हाथ, पैर आदि को पवित्र रखना, चोरी न करना, 'शौच' कहाता है। सब परिग्रहों का त्याग, 'अकिंचनत्त्व' कहाता है। मैथुन का परित्याग, ब्रह्मचर्य कहाता है। ऊपर कहे हुये दस गुण जिसमें हों, उसे साधु समझना चाहिये । पढममणिच्चमसरणं, संसारो एगया य अण्णत्तं । असुइत्त अासव संवरो, अ तह हिज्जरा तवमी ॥३०॥ "इस गाथा में तथा आगे की गाथा में बारह भावनाए कही गई हैं।" अनित्यभावना, अशरणभावना, संसारभावना, एकत्वभावना, अन्यत्वभावना, अशुचित्वभावना, प्रास्त्रवभावना, संवरभावना, निर्जराभावना ॥३०॥ (१) धन, यौवन, कुटुम्ब श्रादि, संसार के सब For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107