Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 73
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * संवरतत्त्व * BooooDOO90.000000000000000०......००००. परिहारविसुद्धीअं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३२ ॥ "इस गाथा में पाँच प्रकार के चारित्रका वर्णन है।" सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनीयचारित्र, परिहारविद्धिचारित्र, सूक्ष्मसंपरायचारित्र ॥ ३२ ॥ (१) सामायिक में दो पद हैं; सम और आयिक सम याने रागद्वेष रहितपना उसकी आय याने प्राप्ति जिससे हो उसे सामयिक कहते हैं । सदोष व्यापारका त्याग और निर्दोष व्यापारका सेवन अर्थात् जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी प्राप्ति हो, उस व्यापारको 'सामायिकचारित्र' कहते हैं। (२) प्रधान साधुके द्वारा दिये हुये पाँच महाव्रतों को 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं । (३ ) तपोविशेष द्वय कर्मोंकी विशुद्धि याने निर्जरा जिससे होती है उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं । नव साधु गच्छसे अलग होकर सिद्धान्तमें लिखी हुई विधिके अनुसार अठारह मास तक तप करते हैं, उसे 'परिहारविशुद्धिचारित्र' कहते हैं। (४) जिस स्थिति में केवल सूक्ष्मसंपराय कषाय (लोभ) का ही उदयरह जाता है उसको सूक्ष्मसंपरायचारित्र For Private And Personal

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