Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 55
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * आस्रवतत्व * (४३) 00000000000000000000००००००००००००००००००००० प्रास्त्रवतत्त्व। इंदिन कसाय अव्वय, जोगा पंच चउ पंच तिनि कमा। किरिश्रानो पणवीसं, इमा उ ताऊ अणुक्कमसो ॥ २१ ॥ "इस गाथा में प्रास्रव के बयालीस भेद कहे हैं।" पांच इन्द्रियाँ; चार कषाय, पाँच अवत, तीन योग और पञ्चीस क्रियायें, ये आस्रव के बयालीस भेद हैं ॥२१॥ 'श्रोस्रव के दो भेद हैं; भावास्रव और द्रव्यास्रव । जीवका शुभ, अशुभ परिणाम, भावात्रव' कहलाता है। शुभ-अशुभ परिणामों को पैदा करनेवाली बयालीस प्रकारकी वृत्तियोंको 'द्रव्यास्रव कहते हैं. ___ इन्द्रियाँ दो तरहकी हैं; द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय पुद्गल रूप है और भावेन्द्रिय है जीव की शब्दादिको ग्रहण करने की शक्ति । काय चार हैं;- क्रोध, मान, माया और लोम। पाँच अवत:-प्राणातिपात ( हिंसा ), मृषावाद ( मठ बोलना), प्रदत्तादान (चोरी), मैथुन और परिग्रह (मृच्छी)। For Private And Personal

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