Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 59
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * मास्रवतत्व * (४७) श्रानयनिकी, वैदारणिकी, अनाभोगिकी, अनवकांचाप्रत्ययिकी, प्रायोगिकी, सामुदायिको, प्रेमिकी, द्वेषिको और ऐपिथिकी । इन पच्चीस क्रियाओंसे कर्मका भास्रव होता है ।। २४॥ (१७) जीव तथा जड़ पदार्थोंको किसीके हुक्मसे या खुद लाने लेजानेसे जो क्रिया लगती है उसे 'पानर्यानकी' कहते हैं। (२८) जीव और जड़ पदार्थोंको चीरने फाइनेसे जो क्रिया लगती है, उसे 'वेदारणिकी' कहते हैं । (28) बेपर्वाहीसे चीजों के उठाने रखने तथा चलने फिरनेसे जो क्रिया लगती है, उसे 'अनाभोगिकी' कहते हैं। (२०) इस लोक तथा परलोकके विरुद्ध आचरण करनेसे 'अनवकाक्षाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है। (२१) मन, वचन और शरीरके अयोग्य व्यापारसे 'प्रायोगिकी' क्रियो लगती है । (२२) किसी महापापसे आठों कर्मोंका समुदितरूपसे बन्धन हो, तो 'सामुदायिको' क्रिया लगती है। (२३) माया और लोभ करनेसे जो क्रिया लगती है उसे 'प्रेमिकी' कहते हैं। (२४) क्रोध और मानसे 'द्वेषिको क्रिया लगती है। For Private And Personal

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