Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 49
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * पापतव* मान, प्र. मायो और प्र० लोभ । इनकी स्थिति चार महीनेको है; ये पापकर्म, सर्वविरतिरूप चारित्रके प्रतिबन्धक हैं और मृत्यु भेने पर प्रायः मनुष्यगति मिलती है। (४८-५१) जिस कमसे यथाख्यातचारित्रकी प्राप्ति न हो, उसे 'सज्वलन' पापकर्म कहते हैं । इसके भी चार भेद हैं; सज्ज्वलन क्रोध, सं. मान, सं० माया और सं० लोभ । इनकी स्थिति पंदरह दिनों की है और मृत्यु होने पर देवगति प्राप्त होती है। (५२) जिस कर्मसे, विनाकारण या कारणवश हँसो आये, उसे 'हास्यमोहनीय पापकर्म कहते हैं। (५३) जिस कर्मसे अच्छे अच्छे पदार्थों में अनुराग हो, उसे 'रतिमोहनीय' पापकर्म कहते हैं। (५४) जिस कर्मसे, बुरी चीजोंसे नफस्त हो, उसे 'प्रतिमोहनीय पापकर्म कहते हैं। (५५) जिन कर्मसे इष्ट वस्तुका वियोग होने पर शोक हो, उसे 'शोकमोहनीय' पोपकर्म कहते हैं। (५६) जिस कर्मसे, विनाकारण या कारणवश दिलमें भय हो, उसे 'भयमोहनीय' पापकर्म कहते हैं । (५७) जिस कर्मसे दुर्गन्धी या बीभत्स पदार्थों को देखकर घृणा हो, उसे 'जुगुप्सोमोहनीय' पापकम कहते हैं। For Private And Personal

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