Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 48
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * नवतत्व * (३४) जिस कर्मसे जीव नरकमें जीता है, उसे 'नरकायु' पापकर्म करते हैं। (३५) जिस कर्मसे जीवको जबरदस्ती नरकमें जाना पड़े, उसे 'नरकानुपूर्वी पापकर्म कहते हैं। __ (३६-३६) जिस कर्मसे जीवको अनन्तकाल तक संसारमें घूमना पड़ता है, उसे 'अनन्तानुबन्धो पापकर्म कहते हैं। इसके चार भेद हैं; अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अन. माया ओर अन० लोम। जबतक जीव जीता है तबतक प्रायः ये बने रहते हैं और अन्तमें प्रायः नरकगति प्राप्त होता है। (४५-४३) जिस कमसे जीवको देशविरतिरूप प्रत्याख्यानकी प्राप्ति न हो, उसे 'अप्रत्याख्यान' पापकर्म कहते हैं। इसके भी चार भेद हैं; अप्रत्याख्यान क्रोध, अप्रत्याख्यान मान, अ. माया और अ० लोभ । इनको स्थिति एक वर्षकी है, इनके उदयसे अणुव्रत धारण करने की इच्छा नहीं होती और मरने पर प्रायः तिर्यश्चगति' मिलती है। (४४-४७) जिसके उदयसे सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान की प्राप्ति न हो, उसे 'प्रत्याख्यान पापकर्म कहते हैं । इसके चार भेद हैं:-प्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यान For Private And Personal

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