Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir *नवतत्त्व पुण्यतत्त्व । सा उच्चगोत्र मणुदुग, सुरदुग पंचेंदिजाइ पणदेहा। आइतितणूणुवंगा, प्राइमसंघयणसंठाणा ॥ १५ ॥ "इस गाथा में तथा आगे की दो गाथाओं में पुण्य तत्त्व के बयालीस भेद कहे हैं।" सातावेदनीय, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, देवगति, देवानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, चैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर प्रथम के तीन शरोरों के अंग, उपांग और अंगोपांग, प्रथम संहनन और प्रथम संस्थान ।। १५ ॥ ( १ ) जिस कर्म से जीव सुख का अनुभव करे, उसे 'सातदिनीय' कहते हैं। (२) जिस कर्म से जीव उच्चकुल में पैदा हो, उसे 'उच्चैर्गोत्र' कहते हैं। (३) जिस कर्म से जीव को मनुष्यगति मिले उसे 'मनुष्यगति' कहते हैं। जिस कर्म से मनुष्य की प्रानुपूर्वी मिले उसे 'मनुष्यानुपूर्वी कहते हैं । आनुपूर्वी का मतलब यह है कि For Private And Personal

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