Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 36
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२४) *नवतस्व लब्धिजन्य । देवता और नरकनिवासी जीवों का शरीर 'औपपातिक' कहलाता है। लब्धि अर्थात् सामर्थ्य विशेष प्राप्त होने पर तिर्थश्च और मनुष्य भो कभी कभी वैक्रिय शरीर धारण करते हैं, वह 'लब्धिजन्य' है। (१०) जिस कर्म से अाहारक शरीर की प्राप्ति हो उसे 'आहारक' कर्म कहते हैं दूसरे द्वोप में विद्यमान तीर्थ: कर से अपना सन्देह दूर करने के लिये या उनका ऐश्वर्य देखने के लिये जब चौदह पूर्वधारी मुनिराज चाहते हैं वव निजशक्ति से एक होथ प्रमाण, चर्म चक्ष से अदृश्य, अति सुन्दर शरीर बनाते हैं, उस शरीर को 'योहारक शरीर' कहते हैं। (११) जिस कर्म से तैजस शरीर की प्राप्ति हो, उसे 'तेजस' कर्म कहते हैं। किये हुये आहार को पका कर रस, रक्त श्रादि बनाने पाला तथा तपोबल से तेजोलेश्या निकालने वाला शरीर 'तेजस' कहलाता है। (१२) जीवों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्मों का विकाररूप तथा सब शरीरों का कारणरूप, 'कोमण' शरीर कहलाता है। For Private And Personal

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