Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (२८) * नवरात्र * ( २८ ) जिस कर्म से जीवके शरीर के अवयव, नियतस्थान में व्यवस्थित हों उसे 'निर्माण' नामकर्म कहते हैं । जैसे कारीगर, मूर्ति में यथायोग्य स्थानों में अवयरों को बनाता है वैसे ही 'निर्माण' नामकर्म भी अवयवों को व्यवस्थित करता है । । (२६-३८) त्रसदशकका विचार आगे की गाथा में कहा जायगा । ( ३६-४१ ) जिन कर्मों से जीव देव, मनुष्य और तिर्यश्च की योनि में जीता है, उनको क्रम से 'देवायु', 'मनुष्यायु' और 'तिर्यञ्चायु' नामकर्म कहते हैं । (४२) जिस कर्म से जीव, चौतीस अतिशयों से युक्त होकर त्रिभुवनका पूजनीय होता है, उसे 'तोर्थङ्कर' नाम कर्म कहते हैं । तस बायर पज्जतं, पत्ते सुस्सर ग्राइज जसं, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 000000046606 थिरं सुभं च सुभगं च । तसाइदसगं इमं होइ ॥ १७ ॥ For Private And Personal " इस गाथा में सदशकका वर्णन है" ( १ ) जिस कर्म से जोव को 'नस' शरीर मिजे उठे

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