Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 43
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * पापतत्व * (३१) ००००००००००००००००००००००००००००००० सत्यानद्धि, २० नीचैर्गोत्र, २१ असातावेदनीय, २२ मिथ्यात्वमोहनीय; स्थावरदशक- २३ स्थावर, २४ सूक्ष्म, २५ अपर्याप्त, २६ साधारण, २७ अस्थिर २८ अशुभ, २६ दुभग, ३० दुःस्थर, ३१ अनादेय और ३२ अयशःकीर्ति; नरकत्रिक-३३ नरकायु. ३४ नरकगति और ३५ नरकानुपूर्वी; पच्चीस कषाय-- ३६ अनन्तानुवन्धो क्रोध, ३७ अ० मान, ३८ अ० माया, ३६ अ. लोभ, ४० अप्रत्याख्यान क्रोध, ४१ अप्र० मान, ४२ अप्र० माया, ४३ अप्र० लोभः ४४ प्रत्याख्यान क्रोध, ४५ प्र० मान, ४६ प्र० माया, ४७ प्र. लोभ, ४८ संज्वलनक्रोध, ४६ सं० मान, ५० सं० माया, ५१ सं. लोभ, ५२ हास्य, ५३ रति, ५४ अरति, ५५ शोक, ५६ भय, ५७ जुगुप्सा, ५८ खीवेद, ५६ पुरुषवेद, ६० नपुन्सकवेद, तियेञ्चद्विक;-६१ तिर्यश्चगति और ६२ तिर्यञ्चानुपूर्वी ॥ १३ ॥ (१) मन और पांच इन्द्रियोंके सन्बन्धसे जीवको जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं, उस ज्ञानका आवरण अर्थात् आच्छादन, 'मतिज्ञानावरणीय' पापकर्म कहलाता है। (२) शास्त्रको द्रव्यश्रुत' कहते हैं और उसके सुनने या पड़ने से जो ज्ञान होता है उसे 'भावश्रुत' कहते हैं, उसका For Private And Personal

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