Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * नवतत्व ०००००००००००००. --00000००००००००० . . दो य सया सोलहिया, श्रावलिया इग मुहुत्तम्मि ॥१२॥ समयावली मुहुत्ता, दोहा पक्खा य मास वरिसा य । भणियो पलिया सागर, उस्सप्पिणी सप्पिणी कालो ॥१३॥ एक क्रोड़, सड़सठ लाख, सतहत्तर हजार, दो सौ सोलह (१६७७७२१६) प्रालिकाओं का एक 'मुहर्त' होता है ॥१२॥ असंख्य समयों की एक 'पावलिका होती है। जिसका विभाग न हो सके ऐसे अतिसूक्ष्म कालको 'समय' कहते हैं । तीस मुहूत्र्तों का अहोरात्ररूप एक 'दिन' होता है । पन्द्रह दिनों का एक 'पक्ष'। दो पक्षों का एक 'मास' । बारह महीनों का एक 'वर्ष'। असंख्य वर्षों का एक ‘पन्योपम'। दस क्रोडाकोड़ी पल्योपम का एक 'सागरोपम' । दस क्रोडाकोड़ो सागरोपम की एक 'उत्सपिणी' । दूसरे दस क्रोडाकोड़ी सागरोपम की एक 'अवरूपिणी ॥ १३ ॥ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मिलकर एक 'कालचक्र' For Private And Personal

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