Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (१६) * नवतत्त्व * 9.90. धर्मास्तिकाय, चलन स्वभाव वाला है अर्थात् जैसे मछली के चलने फिरने में जल सहायक है उसी तरह जोव और पुद्गल के सञ्चार में हिलने डुलने में-धर्मास्तिकाय महायक है। अधर्मास्तिकाय स्थिर स्वभाव वाला है अर्थात जैसे वृक्षादि की छाया पक्षियों को विश्रान्ति लेने में-ठहरने में-कारण है उपो तरह जोब और पुद्गन को स्थिर रखने में अधर्मास्तिकाय कारण है ॥ ६ ॥ अवगाहो अागासं, पुग्गल जीवाण पुग्गला चउहा। खंधा देस पएसा, यव्या॥१०॥ अवकाश देना आकाशास्तिकाय का स्वभाव है । जैसे दूध, शकर को अरकाश देता है उसी तरह अाकाशास्तिकाय, जीव और पुद्गलों को अवकाश देता है। पुद्गल के चार भेद ये हैं; 'स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ॥१०॥ __ आकाश के दो भेद हैं, लोकाकाश और अलोकाकाश । जितने आकाश देश में जोव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय और काल व्याप्त है, वह लोककाश कहलाता है, और उस से जुदा अलोकाकाश । For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107