Book Title: Navtattva
Author(s): Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra DODO www.kobatirth.org * जीवतस्व ऋ 9600००० "अब जीव आदि तत्व के भेद कहते हैं ।" चउदस चउदस बाया Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सत्तावन्नं बारस, 0000 लीसा वासी हुति बायाला । च नव या कमेणेसिं ॥ २ ॥ जीव के चौदह, अजीव के चौदह, पुराय के बयालीस, बाप के बयासी, आसव के बयालीस, सेवर के सत्तावन, निर्जरा के बारह, बन्ध के चार और मोक्ष के नव भेद हैं || २ || उपर बताई हुई नवतस्त्रों के सब भेदों की संख्या दोसौ छियत्तर (२७६) हैं । उनमें अठयासी भेद अरुपी है और एक सौ अयासी भेद रुपी है। संवर, निर्जरा श्रौर मोक्ष ये तीन तत्र आत्मा के सहज स्वभाव होने से रुपी है और जीव, पुण्य, पाप, ध्याश्रव और बंध ये पांच तत्त्व कर्म रूप होने से रुपी है । यद्यपि जीव रुपी है फिर भी कर्म - युक्त संसारी जीव की अपेक्षा से यहां रुपी में गिना गया है, तथा जीव तत्र में १४ भेद में से पुद्गल के चार भेद रुपी हैं, और धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य के दस भेद रुपी हैं । नव के रुपी रुपी भेदों की और हेय-ज्ञेय उपादेया की यन्त्र द्वारा समझ. : For Private And Personal

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