Book Title: Mrutyu Aur Parlok Yatra
Author(s): Nandlal Dashora
Publisher: Randhir Book Sales

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Page 14
________________ सृष्टि रचना. [ १३ स्वरूप नहीं है बल्कि वही एक इन दोनों लक्षणों से युक्त है। जिस प्रकार विद्युत अप्रकट रूप है एवं अग्नि उसका प्रकट रूप है ऐसा ही ब्रह्म का निराकार एवं साकार रूप है। दोनों भिन्न नहीं हैं। यह सृष्टि उसी एक की अभिव्यक्ति है। प्रत्येक कल्प में सृष्टि की नई रचना होती है तथा कल्पान्त में यह उस ब्रह्म में विलीन हो जाती है। जिस प्रकार बीज में सम्पूर्ण वृक्ष की सत्ता विद्यमान रहती है उसी प्रकार यह जगत् अप्रकट रूप मे, शक्ति रूप से उस परब्रह्म में विद्यमान रहता है तथा सृष्टि काल में वही शक्ति जड़-चेतन के रूप में प्रकट होती है। सत्ता का कभी नाश नहीं होता । रूपान्तरण मात्र होता है। (ब) परा और अपरा प्रकृतियाँ __ इस परब्रह्म में दो प्रकार की प्रकृतियाँ निहित हैं जिन्हें "परा" एवं "अपरा" प्रकृति कहते हैं। ये दोनों प्रकृतियाँ उससे अभिन्न तथा अप्रकट रूप से विद्यमान रहती हैं। परब्रह्म की इन दोनों प्रकृतियों से ही सृष्टि की रचना होती है तथा ब्रह्म इन दोनों से विलक्षण है। इन प्रकृतियों का विस्तार ही यह दृश्य जगत है। इन प्रकृतियों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह परब्रह्म ही नित्य एवं शाश्वत है जबकि ये प्रकृतियाँ अनित्य एवं विनाशी है किन्तु ज्ञान के अभाव में ये नित्य जैसी प्रतीत होती है। ' यही भ्रम है जिसे "माया" कहा जाता है। प्रकृति को नित्य मानना ही माया है जो जीव के बन्धन का कारण है। सत् का ज्ञान होने पर ये प्रकृतियाँ अपने कारण परब्रह्म में

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