Book Title: Mrutyu Aur Parlok Yatra
Author(s): Nandlal Dashora
Publisher: Randhir Book Sales

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Page 31
________________ ३०] मृत्यु और परलोक यात्रा कभी ब्रह्म नहीं हो सकती। उसका यह भेद अनादि काल से है। किन्तु जब वह अपने समस्त विकारों का त्याग कर देती है तो वह शुद्ध आत्म भाव को प्राप्त हो जाती है जो स्वयं ब्रह्मा ही है । इस स्थिति को 'लय मुक्ति” कहते हैं। . उपासना काल में उसे ऐसी अनुभूति हो जाती है कि "मैं" तथा "ब्रह्म" भिन्न नहीं हैं। मैं उसी का परिवर्तित स्वरूप हूं किन्तु जानना और हो जाना दो भिन्न स्थितियाँ हैं । परमात्मा सर्वज्ञ है व जीवात्मा उसे जानने वाला है । जानने वाला स्वयं सर्वज्ञ कैसे हो सकता है। विद्युत को जानने वाला कभी स्वयं विद्युत नहीं हो सकता । ऐसा ही परमात्मा और जीवात्मा है। परमात्मा और जीवात्मा के धर्मों में भेद हो जाने से जब तक वह अपने धर्मों का सम्पूर्ण रूप से परित्याग नहीं कर देती तब तक उसकी परमात्मा से भिन्नता बनी रहेगी। इसकी यह भिन्नता निम्न प्रकार से है। (ब) जीवात्मा और परमात्मा में भिन्नता जीवात्मा भी परमात्मा की ही भांति विभु (व्यापक) है किन्तु प्रकृति के आवरणों के कारण उसका कारण शरीर निर्मित हो गया है जिससे उसके सूक्ष्म एवं स्थूल शरीरों का निर्माण हो गया। इस कारण वह सीमित एवं एक देशीय हो गया। इस कारण शरीर के आवरण के ही कारण प्रलयकाल में भी उसका अपना अलग विभाग बना रहता है तथा सृष्टि काल में भी शरीरों के सम्बन्ध से उसके कर्मों का मिश्रण नहीं होता, विभाग बना रहता है। इस कारण से जितने शरीर हैं उतनी ही जीवात्माएँ हो गई हैं जिससे उसकी व्यापकता सीमित हो गई।

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