________________
६. जीवात्मा का क्रमिक विकास (अ) सूक्ष्म के स्थूल जगत्
इस सृष्टि का सबसे सूक्ष्म तत्त्व वह पारब्रह्म है जो क्रमशः स्थूलता को प्राप्त होकर इस जड़-चेतनमय स्थूल सृष्टि की रचना करता है । सूक्ष्म से लेकर स्थूल जगत तक इसके सात शरीर हैं जो प्रकृति के ही आवरण हैं जिनके पार उस परब्रह्म की सत्ता है । ये सात शरीर जड़ और चेतन दोनों में समान रूप से विद्यमान हैं किन्तु जड़ में ये सभी सुप्तावस्था में रहते
हैं।
इनके विकास की सम्भावना नहीं है जबकि वनस्पति, पशु-पक्षी व मनुष्यों में क्रमशः अधिक विकसित होते हैं । मनुष्य में भी कुछ शरीर तो स्वाभाविक रूप से पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण उम्र के साथ अपने आप विकसित होते जाते हैं किंतु कुछ को साधना, श्रम, पुरुषार्थ, संकल्प आदि के द्वारा विकसित करना पड़ता है। जिसके सभी शरीर पूर्ण विकसित हो जाते हैं वही अन्त में परमात्मा का अनुभव करता है । जिनके सातों शरीरों का विकास इसी जन्म में कर लिया है वह जीवन्मुक्त होकर सीधा परब्रह्म में विलीन हो जाता है किन्तु जिसका अहंकार नष्ट नहीं हुआ है वह ब्रह्मलोक में रहकर उसके भोगों
(८४)