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जीवात्मा का क्रमिक विकास । (ख) निर्वाण शरीर
ब्रह्म शरीर में यदि अस्मिता बची रही. तो उसे भी खोने पर निर्वाण उपलब्ध हो जाता है । इसमें शून्य ही शेष रह जाता है। ब्रह्म भी समाप्त हो जाता है। यहाँ दीपक बुझ जाता है, ज्योति शून्य में विलीन हो जाती है। वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है । बूंद सागर में मिलकर एकाकार हो जाती है। वहाँ न अहं रहता है न ब्रह्म । यही निर्वाण है।
इसका सम्बन्ध "सहस्त्रार' से है। ब्रह्म ज्ञानी चाहे तो कल्पान्त तक ब्रह्मलोक में रुक सकता है। यह आखिरी बाधा है। अस्मिता के खोने के भय से अधिकांश साधक यहीं पर रुक जाते हैं। यह महामृत्यु है। ब्रह्म शरीर में शरीर शुद्ध चेतनमय होता है। यह अशरोरो स्थिति है। निर्वाण शरीर में प्रवेश संकल्प मात्र से ही होता है। यहाँ साधना व पुरुषार्थ की गति नहीं है । निर्वाण शरीर में प्रवेश करने के बाद सूचना देने वाला बचता ही नहीं। ___ जो इसमें प्रवेश कर गया वह लौट कर नहीं आता। इसलिए इसकी जानकारी किसी को नहीं है। यहाँ व्यक्तिगत ईश्वर को भी छोड़ना पड़ता है। जन कल्याण के लिए बुद्ध ने भी इसमें प्रवेश नहीं किया।
ये सात शरीर बाधाएँ हैं जिनको पार करने पर ही अंतिम स्थिति निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
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