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जीवात्मा का क्रमिक विकास
करनी पड़ती है क्योंकि यह भी बाधक बन जाता है । अधिकांश साधक यहीं रुक जाते हैं । वे ब्रह्मज्ञान तक नहीं पहुंचते । जो आनन्द ही प्राप्त करने का इच्छुक है वह यहीं रुक जायेगा ।
योग की क्रियाएँ व अन्य साधनाएँ यहीं समाप्त हो जाती हैं । पुरुषार्थ की यही अन्तिम सीमा है। इसके आगे समर्पण ही महत्वपूर्ण हो जाता है । पुरुषार्थ से बढ़ने वाले इससे आगे नहीं जा सकते । यहाँ अहंकार तो मिट जाता है किन्तु अस्मिता बनी रहती है । यहाँ पहुंचे व्यक्ति की घृणा, हिंसा, दुख, वासना आदि छूट जाती हैं किन्तु अपना अलग अस्तित्व बना रहता है ।
इस शरीर को प्राप्त व्यक्ति दैव योनि में रहेगा । मोक्ष प्राप्त करने के लिए उसे पुनः मनुष्य योनि में आना पड़ेगा । यहाँ तक पहुंचे व्यक्ति से शक्तिपात सम्भव है । हठयोगी, योगी व आत्मसाधक यहीं तक पहुंच पाते हैं। आगे पहुंचने के लिए पुरुषार्थ की सभी विधियाँ व्यर्थ हो जाती हैं । वहाँ भिन्न विधियाँ काम में आती हैं । यही वेदान्त का “विज्ञानमय कोश"
है ।
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