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'जीवात्मा का क्रमिक विकास
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सकतीं। भक्ति मार्ग वाले इसे पार कर जाते हैं। यह शरीर ही वेदान्त का "मनोमय कोश" है। __इस मनस शरीर के विकसित होने पर ही समाधि घटती है। इसी समाधि में आत्मज्ञान होता है। इसे “आत्म समाधि" कहते हैं। इसमें आत्मा के प्रकाश के साथ सम्पर्क हो जाता है जो इसका अगला चरण है।
यह मनस तल काफी गहरा है जिसके तीन परत हैंअचेतन, समष्टि अचेतन तथा ब्रह्म अचेतन । इस अचेतन तल का शरीर पिछले जन्म के कर्माणुओं से बना है । यह भी मरणधर्मा है। यह पिछले जन्मों की स्मृतियों का जोड़ है। इसमें उतरने पर पिछले जन्मों का सब कुछ याद किया जा सकता है। यह भी मन ही है। इसके आगे बढ़ने पर साधक “समष्टि अचेतन" में प्रविष्ट होता है ।
इसमें प्रवेश करने पर दूसरे के अचेतन का ज्ञान हो जाता है। वह दूसरों की भावनाओं को पढ़ सकता है। उसके आते ही यह पता चल जाता है कि वह क्या पूछने वाला है। इससे व्यक्ति सारे जगत् से जुड़ जाता है। किन्तु यह भी ज्ञान की स्थिति नहीं है। यद्यपि यह “दैविक मन" (डिवाइन माइण्ड) है किन्तु है मन ही। इससे भी पार हो जाने पर वह “ब्रह्म अचेतन" में प्रवेश करता है। यहाँ उसे अनुभूति होती है कि 'मैं ब्रह्म ही हूं।
।' इसके भी पार जाने पर मन समाप्त हो जाता है। इसी को निर्वाण या मोक्ष कहते हैं। यही जीवात्मा की परम एवं आखिरी स्थिति है। किन्तु इसमें भी अहंकार बच रहता है तो वह ब्रह्म लोक में रहकर वहाँ के भोगों को भोगता है। इससे