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__ मृत्यु और परलोक यात्रा भुवर्लोक और मनोलोक में प्रकृति का ही अन्तर है। यहां की प्रकृति भुवर्लोक से अधिक सूक्ष्म होती है। यहाँ जीव विशेष क्रियाशील रहते हैं। प्रकृति की अवस्था के अनुसार इसके भी सात विभाग हैं जिनमें भिन्न-भिन्न मनस्तर की जीवात्माएँ रहती हैं। ये सात स्तर भी प्रकृति कणों की घनता के आधार पर हैं जो स्थूल से सूक्ष्म हो जाते हैं। इनमें प्रथम चार खण्ड रूप खण्ड हैं व अन्तिम तीन अरूप खण्ड हैं।
जिस प्रकार सृष्टि निर्माण में ब्रह्म से सर्व प्रथम “ब्रह्मा" की उत्पत्ति होती है जिससे सृष्टि का निर्माण होता है, उसी प्रकार व्यक्ति में मन है जिसकी उत्पत्ति भी आत्मा से होती है इस समष्टिगत मन को ही "ब्रह्मा" कहते हैं तथा व्यष्टिगत मन को "मन" कहा जाता है जो जीवात्मा की समस्त क्रियाओं का आधार है। इस मन से उत्पन्न विचार ही रूप धारण करते हैं । यहाँ सोचना ही करना बन जाता है । . इस मनोलोक के निम्न खण्ड को वेदान्त में “मनोमय कोश" तथा उच्च खण्ड को "विज्ञानमय कोश" कहा गया है। यह विज्ञानमय कोश ही जीवात्मा का निवास स्थान है। थियोसॉफी ने इसी को “कारण शरीर" कहा है। यह एक तेजोमय पिण्ड के रूप में होता है जिसे "हिरण्यगर्भ" भी कहा जाता है। इसी तेजोमय पिण्ड के भीतर परमात्मा का निवास है जिसके हटने पर ही आत्म ज्ञान होता है । इसी को ईशावास्य उपनिषद् सूत्र १५ एवं मुण्डक उपनिषद् सूत्र २/२/8 में स्पष्ट किया गया है।
मानव का विकास जीवात्मा का ही विकास है तथा यह कारण शरीर ही जीवात्मा है । कारण शरीर के नष्ट होने पर