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जीवात्मा का क्रमिक विकास
(य) मनस शरीर
पहले के तीन शरीरों का विकास स्वाभाविकरूप से हो जाता है किन्तु इस चौथे मनस शरीर का विकास साधना द्वारा करना पड़ता है । यह इक्कीस वर्ष के वाद विकसित हो सकता है । इसके विकसित होने से अतीन्द्रिय शक्ति आ जाती है जैसे सम्मोहन, दूर संप्रेषण, दूसरों के मन के विचार पढ़ लेना, शरीर से बाहर निकल कर यात्रा करना, परकाया प्रवेश, अपने को शरीर से अलग कर लेना, हवा में ऊपर उठ जाना, पानी पर चलना, दीवार के पार भी देख सकना, आँख बन्द करके चीजों को देख लेना, वनस्पति से बात कर लेना आदि । लुकमान एवं धन्वन्तरी मे इसी कारण हजारों जड़ी-बूटियों की खोज की तथा उनके गुण और उपयोग जाने ।
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चरक और सुश्रुत ने इसी सिद्धि से शरीर के बारीक-से-बारीक अंगों का भी वर्णन किया है । सुषुम्ना नाड़ी, कुण्डलिनी और षट्चक्रों को विज्ञान अभी भी नहीं खोज पाया है । रूस ने एक हजार मील तक विचार संप्रेषण का कार्य इसी विधि से किया है । इन विचार तरंगों का प्रभाव पदार्थ पर भी पड़ता है । संकल्प से वस्तुओं को हिलाई या तोड़ी जा सकती है । विज्ञान ने भी इसके कई प्रयोग किए हैं ।
योग की समस्त सिद्धियाँ जो पातंजल योग दर्शन में दी गई हैं वे इसी शरीर के विकसित होने से आ जाती हैं । कुण्ड भी इसी शरीर की घटना है । जादू, चमत्कार इसी का विकास है । जब कुण्डलिनी से अनाहत चक्र जाग्रत होता है तो ये सिद्धियाँ आ जाती हैं । इसके जाग्रत होने पर काल व स्थान